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जैन शिक्षण संस्थाएं
३७५ (२) विनय मंदिर में विद्यार्थी प्राइमरी पास लिये जाते थे और इन को सातवर्ष अभ्यास करना होता था । सरकारी स्कूल के मैट्रिक के सब विषयों के अभ्यास के साथ जैनधर्म का अभ्यास, जीवविचार, नवतत्त्व, तत्वार्थ सूत्र का अभ्यास, सामायिक, प्रतिक्रमण, देवपूजा आदि का अभ्यास भी कराया जाता था। इस की भी गुरुकुल की अपनी परीक्षाएं होती थी और उत्तीर्ण विद्यार्थियों को "विनीत" का प्रमाणपत्र दिया जाता था।
निःशुल्क प्रवेश
गुरुकुल में प्रविष्ठ विद्यार्थियों से किसी भी प्रकार का किसी भी रूप से कोई खर्चा नहीं लिया जाता था । निवास, पढ़ाई-लिखाई, खाना-पीना का सब खर्चा गुरुकुल करता था। पर्यटन, पिकनिक प्रादि के लिये ले जाने का भी खर्चा गुरुकुल ही करता था । इस संस्था का सारा खर्चा पंजाब जैन श्वेतांबर, (मूर्तिपूजक) संघ करता था।
आचार संहिता
प्रत्येक विद्यार्थी जब तक गुरुकुल में शिक्षा पाता रहे तब तक उस के लिये ब्रह्मचर्य पालना अनिवार्य था। सदा सत्य बोलना और निर्भय (निर्भीक) रहने के लिये उन्हें शिक्षित किया जाता था अपने कपड़े अपने पाप धोना, अपने कमरों की सफाई करना, अपने सामान को व्यवस्थित रखना सब प्रकार की स्वच्छता, पवित्रता तथा अपने-अपने सब कार्य विद्यार्थी स्वयं करते थे।
कन्दमूल (अनन्तकाय-साधारण वनस्पति) का त्याग अनिवार्य था। सात्विक भोजन, रात्रिभोजन का त्याग, श्रावकोचित नियम पालन किए जाते थे । बीमार विद्यार्थियों की वैयावच्च (सेवा-श्रूषा) करना प्रत्येक विद्यार्थी अपना कर्तव्य समझता था । जूता प्रादि चमड़े के सामान का कार्यकर्ता और विद्यार्थी इस्तेमाल नहीं करते थे।
प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी चौबीस घंटे की दिनचर्या की डायरी (विवरण) लिखना अनिवार्य था। वह डायरी लिख कर बाबा जी को देनी होती थी। वे प्रत्येक डायरी को पढ़कर उस पर अपना नोट लिखते थे । जिस में विद्यार्थियों की दिनचर्या की आलोचनात्मक समीक्षा होती थी। जो विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई।
व्यवस्था में विद्यार्थियों का योगदान
दस-दस विद्यार्थियों के ग्रुप बना दिये गये थे । प्रत्येक ग्रुप का एक विद्यार्थी नेता होता था, उन नेताओं की देख-रेख में विद्यार्थी गुरुकुल के भिन्न-भिन्न विभागों की व्यवस्था में रुचिपूर्वक भाग लेते थे। अतिथि सेवा विभाग, औषधालय, पुस्तकालय, वाचनालय, भोजनशाला, व्यायामशाला, वाटिका, सफाई आदि के सब विभागों की व्यवस्थाओं में विद्यार्थियों का पूर्ण सहयोग रहता था। अर्थात् गुरुकुल के सब विभागों की व्यवस्था विद्यार्थी स्वयं करते थे।
वंड व्यवस्था
कोई अपराध हो जाने पर विद्यार्थियों को शारीरिक दंड देना एक दम वजित था। अपराधी विद्यार्थी को बाबा जी अपने आफिस में बुलाकर उसे उसकी भूल को समझा कर स्वीकार कराते और उसे इस अपराध की शुद्धि के लिये प्रायश्चित लेने को कहते । विद्यार्थी खुशी
1. अधिष्टाता बाबू कीर्तिप्रसाद जी को विद्यार्थी "बाबा जी' कहते थे।
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