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विजयानन्द सूरि
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दीक्षा लेने के बाद आप कभी पंजाब में नही आये। सारे जीवन गुजरात और सौराष्ट्र में ही रहे। प्राप परम गुरुभक्त और गुरुभाई भक्त थे ।
४-महातपस्वी मुनि श्री खांतिविजय जी का परिचय पंजाब में मालेरकोटला नगर में अग्रवाल वैश्य जाति में श्री खरायतीमल का जन्म हुअा। वि० सं० १९११ (ई० स० १८५४) में स्थानकवासी अवस्था के श्री प्रात्माराम जी के गुरु जीवनराम जी से राणिया गाँव में ढूंढकमत की दीक्षा ली और प्रात्माराम जी के छोटे गरुभाई बने। वि० सं १९३० (ई० स० १८७३) में इस पंथ की दीक्षा छोड़कर रेलमार्ग द्वारा अहमदाबाद में पहुंचे प्रोर श्री बुद्धिविजय (बूटेराय) जी से संवेगी दीक्षा ग्रहण की। नाम खतिविजत जी रखा। वि० सं० १६३२ में श्री आत्माराम जी ने जब संवेगी दीक्षा अहमदाबाद में बुद्धिविजय जी से ली तब श्री गुरुदेव ने बड़ी दीक्षा में आत्माराम जी से खांतिविजय जी को छोटा गुरुभाई बनाया । आप श्री महातपस्वी थे। बेले-तेले का पारणा नित्य करते थे। अनेक बड़ी-बड़ी तपस्याएं भी करते थे । प्राप के तपोबल तथा चमत्कारों की अनेक बातें प्रसिद्ध थीं। सब लोग आपको खांतिविजय दादा के नाम से पहचानते थे । आप सौराष्ट्र में जामनगर के आसपास के क्षेत्र में विचरते रहे । अापका वि० सं० १६५६ (ई० स० १६०२) में स्वर्गवास हो गया। संवेगी दीक्षा के बाद आप कभी पंजाब नहीं पाये।
५-प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि (प्रात्माराम) जी महाराज पंजाब अपने शहीदों एवं पराक्रमशाली पुरुषों के लिये इतिहास में प्रसिद्ध है। इस देश में लहरा नामक ग्राम जो जीरानगर (जिला फ़िरोज़पुर) के निकट है उसमें वि० सं० १८९४ (ई० स० १८३७) को कलश जाति के वीर कपूर क्षत्रीय श्री गणेशचन्द्र की पत्नी रूपादेवी की कुक्षी से बालक आत्माराम का जन्म हुमा । बालक की छोटी आयु में ही गणेश चन्द्र का देहांत हो जाने से इसके परम विश्वास पात्र एवं परममित्र प्रोसवाल (भावड़ा) नौलखा गोत्रीय जीरा निवासी लाला जोधामल जी के वहां प्रात्माराम का पालन पोषण हुग्रा । लाला जी ढढक (स्थानकमार्गी) जैन धर्मानुयायी थे। बालक को इनके यहां जैनधर्म के संस्कार मिलने से वि० सं० १९१० में १६ वर्ष की प्रायु में मालेरकोटला नगर पंजाब में ढूढकमत के साधु गंगाराम के शिष्य ऋषि जीवनराम से (आत्माराम ने) इस पंथ की साधु दीक्षा ग्रहण की । नाम ऋषि आत्माराम रखा ।
ऋषि प्रात्माराम जी की स्मरण शक्ति बहुत तीक्ष्ण थी। पाँच छह वर्षों में ही स्थानकमार्गी पंथ के मान्य ३२ सूत्रों का अभ्यास कर लिया । फिर व्याकरण का अभ्यास किया । पश्चात् मूलागमों पर पूर्वाचार्यों द्वारा रचित नियुक्तिर्यों, चूणियों, टीकात्रों और भाष्यों का (पंचांगी का) सूक्ष्म दृष्टि से पठन-मनन-चिंतनपूर्वक अभ्यास किया। इस अभ्यास से आपको ऐसा लगा कि जो मैंने पंथ अपनाया है वह महावीर परम्परा से भिन्न है इससे आपकी श्रद्धा एक दम बदल गई । १५ स्थानकमार्गी ऋषियों को साथ में लेकर महावीर आदि तीर्थंकरों के शुद्धधर्म को अपनाने और उसी के प्रचार करने का निश्चय किया। प्रापने इसी वेश में अपने १५ ऋषियों के साथ सत्यधर्म के प्रचार का बिगुल बजा दिया। इस प्रचार का ऐसा प्रभाव हुआ कि बीस स्थानकमार्गी ऋषि तथा हजारों श्रावक-श्राविकाएं प्रापके अनुयायी हो गये । अब वीर परम्परा के साधु की दीक्षा लेने
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