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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
वहां स्वर्ण सिंहासन पर बैठकर प्रभु मुख वाणी तब तक नहीं खिरती जब तक से साक्षरी वाणी से उपदेश देते हैं और गणधर होने वाला व्यक्ति समवसरण उस समय वे गणधरों तथा साधु-साध्वी में नहीं आता यदि वह स्वयं नहीं आता श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को तो इन्द्र उसे लाकर उपस्थित करता है स्थापना करते हैं। गणधर पद पाने वाले
तब तीर्थ कर की वाणी खिरती है। यानी पुरुष प्रभु की वाणी सुनकर दीक्षा ग्रहण
तीर्थ कर की वाणी होने वाले पुरुष पर करते है । वचनातिशय से तीर्थ कर की अवलंबित है न कि तीर्थकर के वचनावाणी से प्रभावित होकर गणधर प्रभु से
तिशय पर अवलंबित है। दीक्षा ग्रहण करते हैं। १३. साधु, ध्वी, महाव्रती और श्रावक- १३, साधु पाँच महाव्रती होता है, साध्वी व
श्राविका देशव्रती होते हैं । इन चारों को श्राविका देशव्रती होने से प्रायिका का चतुर्विधसंघ कहा है।
समावेश श्राविका में हो जाने से तथा श्रावक भी देशवती होने से साधु-श्रावक
श्राविकारूप तीन संघ मानते हैं । १४. मल्लिनाथ स्त्री तीर्थ कर थे ।
१४. मल्लिनाथ पुरुष तीर्थ कर थे। १५. साधु साध्वी काष्ठ पात्रों में अनेक घरों १५. दिगम्बर साधु-साध्वी उनके निमित्त
से थोड़ा थोड़ा शुद्धाहार ग्रहण कर अपने बनाया हुअा अाहार एक ही गृहस्थ के निवास स्थान पर आकर खाते पीते हैं । घर पर जाकर हाथों में करते हैं। भगत उनके निमित्त बनाया हुअा आहार पानी श्रावक-श्राविकाएं इन त्यागियों के लिये कदापि ग्रहण नही करते । न ही एक घर
अनेक घरों में आहार तैयार करते हैं। पर जाकर आहार करते हैं। ऐसे आहार
जो चौका लगाने के नाम से प्रसिद्ध है। को गोचरी अथवा भ्रामरी कहते हैं । इन अनेक चौकों में तैयार किये हुए
प्राधाकर्मी पाहार में से मात्र एक घर
का आहार ग्रहण करते हैं। १६. साधु स्त्री मात्र का तथा साध्वी पुरुषमात्र १६. साधु-साध्वियाँ स्त्री-पुरुषों से स्पर्श
का स्पर्श भी नहीं करते । ब्रह्मचर्य की करते हैं। साधु के आहार करने पर नववाड़ों का दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं। उनके शरीर पर हाथों की अंजली से साधु-साध्वी अलग-अलग स्थानों में गिरे हुए खाद्य पेय पदार्थों को ठहरते हैं।
स्त्रियां अपने हाथों से पोंछ कर साफ़ करके स्पर्श करने में नवधा भक्ति मानती हैं। ऐसे आहार में गोचरी तथा भ्रामरी
भिक्षाचरी का सर्वथा अभाव होता है। १७. तीर्थ कर के पांचों कल्याणकों, पिंडस्थ १७. स्त्री प्रतिमा को स्पर्श नहीं करती। पुरुष
(छद्मस्थ) रूपस्थ (केवली) रूपातीत प्रतिमा का स्पर्श और प्रक्षाल तो करता (सिद्ध) तीनों अवस्थानों को मान कर
है पर चन्दन पुष्पादि अष्ट दव्यों से पूजा प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाओं की पूजा प्रतिष्ठित प्रतिमा की न करके एक थाली
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