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मध्य एशिया और पंजाब में जेनधर्म
इस बात की पुष्टि के लिये हम यहाँ धुरन्धर दिगम्बराचार्य श्रार्य शिव ( ईसा की ११वीं शताब्दी) कृत मूलाराधना (भगवती प्राराधना) ग्रंथ जिस पर दिगम्बराचार्य अपराजित सूरि ने ईसा की १४वीं शताब्दी में विजयोदया नाम की टीका लिखी है । इस की प्रकाशित प्रति के पृष्ठ ६१२ से ६२३ में लिखे संदर्भ का उल्लेख करते हैं
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श्रथैव मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्र पात्रादि ग्रहणमुपदिष्टम् तथा ह्याचार प्रणिधौ भणितं - "प्रतिलेखनात्पात्र कम्बलं ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिषुकथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ।" श्राचारास्यापि द्वितीयाध्यायने लोक विचयो नाम, तस्य पंचमे उद्देशे एवमुक्तं - "पडिलेहणं पाद छणं उग्गहं कडासरणं अण्णदरं उर्बाधि पाबेज्ज इति । तथा वत्थेसणाए वृत्तं तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेणगं विदियं, तत्थ एसे जग्गिदे देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासस्स तो ति वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं । तथा पासणाए कथितं हिरिमाणे वा जुग्गिदि चावि प्रष्णगे वा तस्सणं वप्पदि वत्थादिकं पादचारितए इति । "
पुनश्चोक्तं तत्रव - "अलाबुपत्तं वा दारुग्गपत्तं वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं श्रप्पबीजं अपसरिदं तथा अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गह हिस्सामिति । "
वस्त्र पात्रा यदि न ग्रह्यते कथमेतानिसूत्राणि नयंते ।
भावनायां चोक्तं "चरिमं चीवर धारितेन परमचेलके तु जिणे ति ।"
तथा सूत्रकृतस्य पुंडरीके मध्याय कथितं - "ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थ- पत्तादि हेदुमिति ।" निषेधेप्युक्तं - "कसिणाई वत्थ- कंबलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहुगं इति । एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले प्रचलता कथं । इत्यत्रोच्यते - प्रार्थिकाणामागमे अणुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया । भिक्षुणां हृीमानयोग्य शरीरावयवो दुश्चर्माभिलंबमान विजो वा परीषह सहणे प्रक्षमः स गृहति ॥
अर्थ - ( प्रश्न ) प्राचीन आगमों में वस्त्र, पात्र प्रादि ग्रहण करने का विधान मिलता है । ऐसा आचारांग मानने वालों का कहना है कि यदि (साधु के लिये ) वस्त्र, पात्र प्रादि का विधान नहीं है तो उन की निश्चय से प्रतिलेखना आदि करने का विधान (प्रागमों में) क्यों लिखा है ? श्राचारांग आदि अंग श्रागमों में – “प्रतिलिखते पात्र कम्बलं वं इति ।" यानि पात्र श्रौर कंबल की प्रतिलेखना ( पडिलेहणा-शोधना) शीघ्र करनी चाहिये ; ऐसा लिखा है ।
श्रागम आचारांग के लोकविचय नामक दूसरे अध्ययन के पाँचवें उद्देशे में ऐसा वचन
है
" पडिलेहणं पादपू छरणं उग्गहं कडासणं प्राणदरं उर्बाध पावेज्जा" अर्थात् श्रोग्धा (रजोहरण ), कटासन, पादप्रोंछन और अन्य उपधि ( उपकरण ) भी ग्रहण कर सकते हैं । तथा वस्त्रषणा में कहा है कि " तत्थ एसे परिसहं हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणणं विदियं तत्थ एसे जुग्गदे देसे दुवे वत्याणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे परिस्सहं प्रणधिहाare as a त्याणि धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं ।" प्रर्थात् जो मुनि परिषह सहन नहीं कर सकता वह एक वस्त्रधारण करे और प्रतिलेखना के लिये दूसरा वस्त्र अपने पास रखे । जो मुनि योग्य प्रदेश में दो वस्त्र धारण करे वह प्रतिलेखना के लिये तीसरा वस्त्रधारण करे। यदि फिर
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