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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
समाधान -कारण की अपेक्षा से वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करना सिद्ध होता है । इसी प्रकार दिगम्बर पंथ के मूलाचार, तिलोयपण्णत्ति आदि अनेक ग्रंथ दिगम्बर साधु-साध्वी के लिये वस्त्र-पात्र आदि ग्रहण करना प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करते हैं। क्योंकि इस विषय पर कुछ विस्तार से लिखना, इस ग्रंथ का विषय नहीं है । प्रतः विस्तार भय से यहाँ निर्देश मात्र ही किया है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि
(१) विक्रम की १५-१६ वीं शताब्दी तक के दिगम्बर ग्रंथकार प्राचारांग प्रादि आगमों को प्राचीन और महावीर की असल वाणी का संकलन मान कर इन्हें पूज्य और प्रमाणिक स्वीकार
करते रहे हैं ।
(२) दिगम्बर ग्रंथों में प्राचीन आगमों के पाये जाने वाले संदर्भ यह भी स्पष्ट सिद्ध करते हैं कि जो प्राचारांग प्रादि अंग-उपांग आदि प्रागम साहित्य श्वेतांबर जैनों के पास सुरक्षित हैं वही असल जिनागम हैं और वे आज तक विद्यमान हैं। आधुनिक दिगम्बरों का इन प्राचीन आगमों का विच्छेद मानना सरासर गलत है। क्योंकि दिगम्बरों के प्राचीन माने जाने वाले षट्खंडागम, गोमट्सार, मूलाचार, तिलोयपण्णत्ति, भगवती पाराधना आदि ढेर सारे ग्रंथों में इन प्राचीन भागमों के संदर्भो के उल्लेख है।
(३) यतिवृषभ, कुदकुद, वट्टकेर, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, प्राचार्य नेमिचन्द्र प्रादि किसी भी दिगम्बराचार्य ने जैनागमों के विच्छेद का अपने ग्रंथों में कोई उल्लेख नहीं किया।
(४) दिगम्बर पंथ के आदि संस्थापक शिवभूति ने एकान्त नग्नत्व के प्राग्रह से इस पंथ की स्थापना करके भी साध्वी को वस्त्रधारण करने पर भी १४ गुणस्थान तथा निर्वाण माना है और इस की पुष्टि धरसेनाचार्य ने अपने ग्रंथ षट्खंडागम सूत्र १/६३ में भी की है और प्रार्य शिव आदि दिगम्बराचार्यों ने भी साधु-साध्वी को कारणवश वस्त्र-पात्र ग्रहण करना स्वीकार किया है।
(५) विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी में दिम्बराचार्य कुदकुद ने दिगम्बर यापनीय संघ से अलग नये दिगम्बर पंथ की स्थापना की और इस पंथ को मूल संघ के नाम से घोषित किया। इस पंथ ने स्त्री मुक्ति, सवस्त्र मुक्ति, के वली भुक्ति, केवली की साक्षर वाणी प्रादि अनेक बातों की एकांत निषेध प्ररूपणा की । दिगम्बर पंथ भी पहले उन्हीं प्रागमों को प्रमाण मानता था जिन्हें आज तक श्वेतांबर जैन मानते आ रहे हैं। परन्तु छठी शताब्दी में जब बहुत सी बातों का अन्तर पड़ गया तब इन प्राचीन भागमों को दिगम्बरों ने अप्रमाणिक कहकर छोड़ दिया और विच्छेद हो जाने की उद्घोषणा कर दी। स्वयं नये ग्रथों की रचनाएं करके अपने पंथ की नयी मान्यताओं का सर्वत्रिक प्रचार शुरु कर दिया।
वर्तमान प्रागमों की प्रमाणिकता और मौलिकता के विषय में विस्तार भय से हम यहां कुछ भी नहीं लिखेंगे क्योंकि जैनागमों के मार्मिक अभ्यासी जर्मनी के डाक्टर हर्मनजेकोबी जैसे मध्यस्थयूरोपीय स्कालरों तथा डा० बूल्हर जैसे समर्थ पुरातत्वमर्मज्ञों ने भी इन आगमों को वास्तविक जनश्रुत मान लिया है। और इस बात को कट्टर दिगम्बरी कामताप्रसाद, परमानन्द, बलभद्र आदि अनेकों ने भगवान महावीर और जैनधर्म के प्राचीन इतिहास प्रादि ग्रंथों में भी
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