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हस्तिनापुर में जैनधर्म
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___ इस पंजाब जनपद में प्रोसवाल, खंडेलवाल और अग्रवाल ये तीन जातियां मुख्यरूप से जैनधर्मानुयायी हैं । प्रोसवाल श्रीमाल खंडेलवाल मुख्य रूप से श्वेतांबर तथा ढूंढक मत के अनुयायी हैं और ये लोग इस जनपद में भावड़ा कहलाते थे । तथा अग्रवाल मुख्य रूप से दिगम्बर तथा तेरापंथ, ढूंढिया मतों को मानने वाले हैं। परन्तु अधिकतर वैष्णव, सनातनी तथा आर्य समाजी हैं। श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी बहुत कम हैं । ये लोग बनिये अथवा बानिये कहलाते हैं ।
श्वेतांबर जैनधर्म पंजाब का अति प्राचीन मूल धर्म है । ढूंढिया मत का प्रचार प्रारंभ विक्रम संवत १७३१ में इस जनपद में हुआ । दिगम्बर पंथी हरियाणा प्रदेश में मुसलमान बादशाहों के समय में प्राबाद हुए। पंजाब प्रदेश में ब्रिटिश राज्य में कतिपय नगरों में अंग्रेजों की छावनियों में अतिअल्प संख्या में प्राकर प्राबाद हुए । सिंध में कराची के सिवाय कहीं भी इनकी प्राबादी अथवा मन्दिर नहीं थे।
पंजाब प्रदेश में पाकिस्तान बनने से पहले रावलपिंडी छावनी, स्यालकोट छावनी, लाहौर छावनी, लाहौर शहर, फिरोज़पुर छावनी, अम्बाला छावनी, अम्बाला नगर, मुलतान, जगाधरी, साढौरा में दिगम्बर पंथिनों के मन्दिर तथा कतिपय परिवार थे। स्व. डा० बनारसीदास अग्रवाल जैन एम० ए० पी० एच० डी प्रध्यापक पंजाब विश्वविद्यालय का मत भी यही है कि दिगम्बर लोग ब्रिटिश राज्य में आकर पंजाब में आबाद हुए हैं। इस की पुष्टि इस पंथ के मन्दिर ब्रिटिश काल में निर्मित तथा आबादी छावनियों में होने से भी होती है। ये लोग उत्तरप्रदेश से पाये और ब्रिटिश मिल्ट्री को मावश्यक सामान की सप्लाई करते थे । पाकिस्तान बनने से पहले ये लोग व्यापार करते थे ।
हरियाणा प्रांत में अनेक नगरों और गांवों में दिगम्बर पंथियों का आगमन उत्तरप्रदेश से मुसलमान बादशाहों के समय में हुआ । जहाँ-जहाँ ये लोग आबाद हैं वहाँ-वहाँ इनके मन्दिर भी मुसलमान काल के विद्यमान हैं । इस प्रदेश में इन की आबादी अच्छी संख्या में है । संभवतः मुलतान में भी दो-चार परिवार मुसलमान बादशाहों के समय में प्राकर आबाद हो गये होंगे। इन के सम्पर्क से कुछ प्रोसवाल परिवार भी दिगम्बर पंथी हो गये थे। वहाँ इनके मन्दिर का निर्माण तो ईसा की २१वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुआ था।
पाकिस्तान बन जाने पर वहाँ के सब हिन्दू, सिख, जैन भारत चले पाए । अब वहाँ कोई भी जैन धर्मानुयायी नहीं रहा ।
६-हस्तिनापुर में जैनधर्म प्रथम तीर्थकर अर्हत् ऋषभदेव का जन्म, दीक्षा आदि अयोध्या में हुए। इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम ऋषभदेव ही प्रार्हती दीक्षा ग्रहण कर अनगार बने । चैत्र वदि ६ को दीक्षा लेकर पाप ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। अधिक समय ध्यान, कायोत्सर्ग तथा तपस्या में व्यतीत करते थे। उस समय भरतक्षेत्र को श्री ऋषभदेव ने ही भोगभूमि से कर्मभूमि बनाया था। इसलिए जैन साधु के प्राचार व्यवहार से उस समय की जनता एकदम अनमिज्ञ थी। मुनि के योग्य निर्दोश आहार देने की विधि तो वे जानते ही नहीं थे। जहाँ प्रभु जाते वहाँ के लोग उनको घोड़ा-हाथी, वस्त्र-अलंकार तथा मुनि के अयोग्य खान-पान की सामग्री को बड़ी श्रद्धा और भक्ति से लेने की प्रार्थना करते थे।
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