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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
सिद्धिचन्द्र की विद्वता और प्रतिभा-अकबर के अवसान के बाद सलीम बादशाह बना और इसका नाम जहाँगीर प्रसिद्ध हुआ । अपने पिता के समान ही इसके अन्तर में भानुचन्द्र के प्रति अगाध श्रद्धा थी। भानुचन्द्र और सिद्धिचन्द्र अकबर और जहाँगीर के निकट सम्पर्क में २३ वर्ष जितने लंबे अर्से तक रहे। इसके बाद जहांगीर की अनुमति लेकर गुजरात चले गये। वहाँ जुदा जुदा नगरों-गांवों में चार-पांच वर्ष विचरण करके जहांगीर की प्रार्थना पर पुनः प्रागरा पधारे। भानुचन्द्र अब वृद्ध हो चुके थे । सिद्धिचन्द्र शक्तिशाली, असाधारण रूपधान और सुडौल शरीर वाले थे। अकबर के दिल में उनके लिए बड़ा वात्सल्य था, वह उन्हें अपना पुत्रवत् मानता था। अकबर ने उन्हें गंभीर अध्ययन केलिए प्रेरणा भी की थी और इसके प्रोत्साहन से ही उन्होंने पर्शियन (फ़ारसी) भाषा का पूर्ण अभ्यास किया था । उनका कितना ही अभ्यास अकबर के पौत्रों के साथ हुआ था । इसलिए चिरकाल से उनकी जहांगीर के साथ बहुत निकटता थी। अनेक बातों में तो वे जहांगीर के सलाहकार भी थे। कविता तथा व्यवहारिक कलाओं में भी उन्होंने पूरा-पूरा प्रभुत्व प्राप्त किया था । जहांगीर के दरबार में और उनके खानगी (Private) प्रसंगों में उनकी हाज़िरजवाबी और सूझ-बूझ से जहांगीर उनपर मंत्रमुग्ध था। अत: जहांगीर के साथ यह प्रसंग गाढ़ मित्रता के रूप में परिणित हो चुका था।
त्यागधर्म की अग्नि परीक्षा-जहांगीर को सिद्धिचन्द्र के लिए एक कल्पना सूझी। उसने एक बार सिद्धिचन्द्र को कहा कि--"पाप साधु जीवन को त्यागकर मेरे दरबार में ऊंचा पद ग्रहण कर लें।" इसने सिद्धिचन्द्र पर स्वयं भी दबाव डाला और अपनी बेग़म नूरजहां से भी दबाव डलवाया। परन्तु सिद्धिचन्द्र ने जहांगीर के इस सुझाव को धृष्टता मानकर ठुकरा दिया और एकदम अस्वीकार कर दिया। सिद्धिचन्द्र के इन्कार करने पर जहांगीर एकदम क्रुद्ध हो गया और अपनी मानहानि समझकर राजदरबार छोड़कर जंगल में चले जाने का हुक्म दे दिया। सिद्धिचन्द्र ने भी अपने चारित्र-संयम को दृढ़ रखने के लिए उसकी आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया और जहांगीर के राजदरबार को छोड़कर तुरन्त चल दिये। मालपुर के ठाकुर की प्रार्थना को स्वीकार करके उसके राज्य में चले गये।
जहांगीर का पश्चाताप-उपाध्याय भानुचन्द्र वृद्ध हो चुके थे और अब भी पूर्ववत जहांगीर के दरबार में जाते-आते रहे । जहांगीर भी आपका बहुत सन्मान करता था। उनके उदास चेहरे के देखकर इसे अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हुआ और सिद्धिचन्द्र को निमंत्रण देकर वापिस अपने पास बुलाया और पहले से भी अधिक उनका आदर सन्मान करने लगा। उन्हें (सिद्धिचन्द्र जी को "जहांगीर पसंद" की पदवी से विभूषित किया।
कृत टीका में है। इसी प्रकार भानुचन्द्र कृत और सिद्धिचन्द्र संशोधित बसंतराज टीका में भी है । तर सिद्धिचन्द्र ने स्वयं कृत भक्तामर की टीका के आदि में लिखा है कि :
"कर्ता शतावधानानां विजेतोन्मत्त वादिनो। वेत्ताषडपि शास्त्रानामध्येता फारसीमपि ।। अकबर सरता हृदयाम्बुज-षट्पदः । दद्यानः खुशफहमिति विरुदं शाहिनापितम् ।। तेन वाचकेन्द्रण सिद्धिचन्द्रेण तन्यते भक्तामरस्य बालानां वृत्ति वर्युत्पत्ति हेतवे ॥ (भानुचन्द्र, सिद्धिचन्द्र ने अनेक ग्रंथों की स्वतंत्र रचनायें, टीका मादि पंजाब में भी की हैं )
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