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मुग़ल सम्राटों पर जैनधर्म का प्रभाव
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प्राप्त किये । जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे । एक शिलालेख1 में आपके विशेषण "पातशाह श्री अकबर समक्ष जित वादिवृन्द, गोबलिवर्द-महिष-महिषीवध निवृत्ति स्फुन्मान कारक लिखा है।
शांतिचन्द्रोपाध्याय के सहपाठी श्री भानुचन्द्रोपाध्याय तथा इनके शिष्य श्री सिद्धिचन्द्र भी जगद्गुरु आचार्य श्री हीरविजय सूरि तथा उपाध्याय शांतिचन्द्र के समान सम्राट से सम्मानित हए । उपाध्याय भानुचन्द्र अकबर को संस्कृत में स्वरचित सूर्यसहस्रनाम स्तोत्र प्रति रविवार को सुनाया करते थे। मुनि श्री सिद्धिचन्द्र का भी बादशाह पर बहुत प्रभाव था। एक बार किसी कारणवश सिद्धाचल पर मन्दिर बनाने का निषेध किया गया था । आपके कहने पर सम्राट ने यह प्रतिबन्ध दूर कर दिया था। आपने बादशाह को फ़ारसी भाषा के बहुत ग्रंथ पढ़ाये थे। मुनि सिद्धिचन्द्र भी उपाध्याय शांतिचन्द्र के समान शतावधानी थे। उनके प्रयोग देख और सुनकर सम्राट ने उन्हें 'खुशफहम' की पदवी से विभूषित किया था। आप षट्दर्शन के प्रकांड विद्वान और अपने गुरु के अनन्य भक्त थे। उपाध्याय भानुचन्द्र और खुशफ़हम सिद्धिचन्द्र अकबर के पास उसकी मृत्यु तक रहे ।
1. विजय प्रशस्ति सर्ग १२ बु० र० नं० १६६१ का विजयसेन सूरि के प्रतिष्ठा का लेख । 2. हीजरी (मुसलमानी) सन् ६६६ (ईश्वी सन् १५६०) में बैल, भैस, भैसा, बकरा, घोड़ा तथा ऊंट के मांस
की निषेधाज्ञा अकबर बादशाह ने कर दी (कट्टर मसलमान इतिहासकार बदायनी) 3. ब्राह्मणों के समान अकबर प्रातःकाल उठकर पूर्व दिशा की तरफ मुख करके खड़े-खड़े सूयोपासना प्रतिदिन किया करता था। तथा वह सूर्यसहस्त्रनाम का भी संस्कृत में पाठ करता था । (बदायूनी)। मकबर को ब्राह्मणों की तरह सूर्य सहस्त्र नाम सुनने की रुचि उसके पूर्वजन्म के संस्कार मालूम पड़ते हैं। कहा है कि अकबर पूर्वजन्म में प्रयाग में मुकन्द नाम का ब्रह्मचारी ब्राह्मण था। यह राज्य प्राप्ति के लोभवश होकर वि सं. १५९८ में प्रयाग में एक पुराने पीपल को जलाकर उसमें स्वयं भस्मीभूत हो गया। मन में राज्या. कांक्षा का नियाणा (तीव्र इच्छा) करके अपना बलिदान देने के बाद बादशाह हुमायूं की पत्नी हमीदा बेगम के गर्भ से वि. सं. १५६८ (ई. स. १५४२) को इसने पत्र रूप में जन्म लिया। यह बादशाह अकबर हुआ। इस बात को अकबर ने जातिस्मरण (पूर्वजन्म के) ज्ञान से जानकर स्वयं प्रयाग में जाकर अपने बलिदान होने के स्थान की खोज की। उस स्थान को खोदने से एक तामपन मिला था। जिसपर श्लोक इस प्रकार खुदा हुआ पाया गया। 'बसु-निधि-शर-चन्द्र (१५९८) तीर्थराज प्रयागे, तपसी बहुल पक्ष द्वादशी पूर्वयामे। शिखिन तनु जु-होम्य-खण्डभूम्याधिपत्ये सकलदुजिहारी ब्रह्मचारी मुकन्दः ।
(नरहरि महापात्र कृत छप्पय तथा विपराल जी कृत कवित्त, हिंदी मासिक, विशालभारत सन् १९४६ ई० दिसम्बर तथा सन् ईस्वी १९४०) मालूम होता है कि पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण ही इसे हिन्दू
पहनावा बहुत पसन्द था और कभी कभी इसे पहना भी करता था। 4. इससे स्पष्ट है कि जनसाधु विविध भाषाओं, सब मतमतांतरों के सिद्धान्त आदि नानाविध ज्ञान-विज्ञान के
जानकार होते थे, राज्यभाषा के भी विद्वान होते थे। जिससे वे अपने समय के राजाओं-महाराजामोंबादशाहों पर भी अपना प्रभाव डालने में सफलता प्राप्त करते थे और उन्हें राहेरास्त (सन्मार्ग) पर लाकर
प्रजा को शोषण करने से बचा लेते थे। 5. इति श्री पातशाह श्री अकबर जल्लालुद्दीन सूर्यसहस्त्रनाम अध्यापकः श्री शत्रुजय करमोचनाद्य नेक--सुकृत विधायक महोपाध्याय श्री भानुचन्द्र गणि निराचितायां तच्छिष्याष्टोत्तर-शतावधान-साधक: प्रमुदित पातशाह श्री अकबर प्रदत्त खुशफहम पराभिधान श्री सिद्धिचन्द्र गणि रचितायां कादम्बरी टीकायामुत्तर-खण्ड टीका समाप्ता।
ऐसा प्रतिम कथन बाण की कादम्बरी पर पूर्वखण्ड की भानुचन्द्र की और उत्तरखण्ड की सिद्धिचन्द्र
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