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मुग़ल साम्राटों पर जैनधर्म का प्रभाव
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यह बात प्रवादमात्र ही नहीं रही थी किन्तु कई विदेशी मुसाफिरों को अकबर के व्यवहार से निश्चय हो गया था कि-'अकबर जैन सिद्धान्तों का अनुयायी है।"
इस के संबन्ध में डा० स्मिथ ने अपनी अकबर नाम की पुस्तक में एक मार्के की बात लिखी है । उस ने इस पुस्तक के पृष्ठ २६२ में 'पिनहरो' (Pinhiero) नामक एक पुर्तगज पादरी के पत्र के उस अंश को उद्ध त किया है कि जो ऊपर की बात को प्रगट करता है । यह पत्र उसने लाहौर से ३ सेप्टेम्बर १५६५ (वि० सं० १६५२) को लिखा था, उस में उसने लिखा था
“He follows the sect of the Jains (Vertie).”
ऐसा लिखकर उस ने कई जैन सिद्धान्त भी अपने इस पत्र में लिखे थे जब विजयसेन सूरि लाहौर में अकबर के पास थे।
इस से यह स्पष्ट समझ सकते हैं कि सम्राट की रहमदिली (दयालुवृत्ति) बहुत ही दृढ़ होनी चाहिये । और ऐसी दयालुवृत्ति जैनाचार्यों ने, जैन उपदेशकों ने ही उत्पन्न कराई थी। इस बात के लिये अब विशेष प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है।
हीरविजय सूरि आदि जैनसाधुओं का उपदेश कितने महत्व का था, इस महत्व को बदाउनी भी स्वीकार करता है--
“And Samanasl and Brahmans (who as far as the matter of private interviews is concerned (P. 257) gained the advantage over everyone in attaining the honour of interviews with His Majesty, and in associating with him, and were in every way superior in reputation to all learned and trained men for their treatises on morals and on physical and stages of spiritual progress and human perfections brought forward proofs, based on reason and traditional testimony, for the truth of their own, and the fallacy of our religion, and inculcated their doctrine with such firmness and assurance, that they affirmed mere imagination as though they were self evident facts, the truth of which the doubts of the secptic could no more shake."
अर्थात् - "सम्राट अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा श्रमणों (जैन साधुओं) और ब्राह्मणों को एकांत परिचय का मान अधिक देता था। उन के सहवास में अधिक समय व्यतीत करता था ।
1. मूल फ़ारसी पुस्तक को 'सेवड़ा' शब्द के अनुवादक ने 'श्रमण' लिखा है, परन्तु चाहिये 'सेवड़ा'; क्योंकि उस समय में जैन श्वेतांबर साधुनों को सेवड़ा के नाम से लोग पहचानते थे। उस समय पंजाब प्रादि प्रदेशों में जैन साधुओं को सेवड़ा कहते थे। इस अंग्रेजी अनुवादक W. H. Lowe M A. (डब्ल्यू एच लॉ एम० ए) इस अपने अनुवाद के नोट में श्रमण का अर्थ बौद्धश्रमण करता है पर यह ठीक नहीं है । क्योंकि बौद्धश्रमण बादशाह के दरबार में कोई गया ही नहीं था। इस बात का अधिक स्पष्टीकरण हम आगे करेंगे।
यहा सेबड़ा से श्वेतांबरजैन साघु को ही समझना चाहिये । 2. Al-Badaoni Translated by W.H. Lowe M.A. Vol. II Page, 264.
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