Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 341
________________ ३०८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म worm [or insect' vermicells] may remain and be killed by their sitting on it. These people hold that the world existed from eternity, but others say, No, many worlds having passed away. In this way they say many silly things, which I omit so as not to weary your reverence." "अर्थात् राजा अकबर ईश्वर और सूर्य को पूजता है और वह हिन्दू है । वह व्रति सम्प्रदाय का अनुसरण करता है। वे 'वति' मठवासी साधुनों के समान बस्ती (उपाश्रय) में रहते हैं और बहुत तपश्चर्या करते हैं । वे कोई भी सजीव (सचित) वस्तु नहीं खाते और ज़मीन पर बैठने से पहले ज़मीन को रूई (ऊन) की पीछी (ौघा) से साफ़ (पडिलेहण) करते हैं। ताकि ज़मीन पर रहे हुए जीव-जन्तु नष्ट न हों । इन लोगों का ऐसा मानना है कि-जगत अनादि है, और यह भी कहते हैं कि बहुत दुनियाएं हो गई हैं। ऐसी मूर्खता भरी (?) बातों से आप श्रीपूज्य को परेशान न करते हुए, इतने मात्र से विराम लेता हूँ।" (२) इसी प्रकार एक दूसरा पत्र पिनहरो ने ता० ६ नवम्बर १५६५ ई० को अपने देश में लिखा था। उसमें जैनों के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह इस प्रकार है “The Jesuit narrates a conservation with a certain Babansa ( ? Baban Shah) a wealthy notable of Cambay (Khambhat) favourable to the fathers. He is a deadly enemy of certain men who are called Verteas, concerning whom I will give some alight information (delli qualitocara casa). The Verteas live like monks together in cemmunities (congregatione] ; and when I went to their house [in cambay] they were about fifty of them there. They dress in certain white clothes; they do not wear anything on the head; their beards are not shaved with a razor, but pulled out, because all the hairs are torn out from the beards, and like wise from the head, leaving none of them, save a few on the middle of the head upto the top, so that they left a very large bald space. 1. वत्ती-यह दूसरा कोई नहीं है, किन्तु जनसाधु ही हैं। उस समय के अधिकतर लेखकों ने अपनी पुस्तकों में जैनसाधु को व्रती के नाम से ही लिखा है। 'डिस्क्रिप्शन प्राफ एशिया' नामक पुस्तक, जो कि ई०स० १६७३ में प्रकाशित हुई है, उसके पृष्ठों ११५, २१३, २३२ प्रादि में भारतवर्ष के जनसाधुनों का वर्णन पाया है, वह व्रती शब्द से ही दिया है। यहां तक कि सुप्रसिद्ध गुजराती कवि शामलदास ने भी 'सूडा बहोतेरी' में व्रती शब्द से ही जैन साधु का उल्लेख किया है । व्रती शब्द की व्युत्पत्ति से अर्थ व्रतमस्या-ऽस्तीति व्रती (जिन्हें व्रत हो वे) होता है । परन्तु रूढ़ी से व्रती शन्द जैनसाधुओं के लिये ही प्रयुक्त हुना हैअथ च उपर्युक्त पत्र में जो व्रती का स्वरूप तथा उनकी मान्यता का उल्लेख किया वे सब जैनश्वेतांबर मूर्ति-पूजक हीरविजय सूरि आदि साधुओं के साथ बराबर मेल खाते हैं। जैसे १. उपाश्रय में रहना, २. बहुत तपश्चर्या करना, ३. सजीव (सचित) प्राहार का त्याग, ४. प्रौधे से जमीन का साफ़ (पडिलेहण) करना ताकि जीव-जन्तु नष्ट न हों, ५. जगत अनादि है। इत्यादि-1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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