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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
राजा ने नीलकंठ की बात को मान लिया और उसे बहुत हाथी, घोड़े, वस्त्रालंकार आदि से पुरस्कृत किया एवं उसके कथनानुसार अपने देश को वापिस लौट गया ।
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सामानक ( सामाना) के राजा और प्रजा ने अपने उपकारी परमार्हत् श्री नीलकंठ ब्राह्मण को खूब दान - मान-सम्मान से पुरस्कृत किया । जिस प्रकार कलिकाल सर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने महादेव की स्तुति में तीर्थ कर की स्तुति की थी वैसे ही नीलकंठ ने भी महादेव ऋषभध्वज के रूप में श्री ऋषभदेव की स्तुति करके नगर, संघ, जिनमंदिरों, प्रजा आदि तथा यहाँ के राजा की अपनी सूझ-बूझ से रक्षा की । तथापि लोग ऐसा समझकर कि नीलकंठ ने अन्यदेव की स्तुति की है जिसके प्रभाव से सबकी रक्षा हुई है सारी घटना का राज्य सभा में जाकर सब नगरवासियों के सामने स्पष्टीकरण किया और मिथ्यादृष्टि लोग इसका दुरुपयोग न करें, इसकी श्रालोचना करके प्रायश्चित कर लिया । तप-संयम तथा जिनभक्ति की आराधना करते हुए भ्रन्त समय में मृत्यु पाकर माहेन्द्र देवलोक में देवता हुआ ।
उपर्युक्त विवरण श्री हेमविमल गणि कृत कथारत्नाकर से लिया है ।
इस वृतांत में वर्णित व्यक्ति ऐतिहासिक मालूम होते हैं। भारत में मुसलमानों के श्रागमन से पूर्व सिंध देश में पंचपट्टण में प्रसरि नामक राजा कब हुआ यह शोध का विषय है । सामानक ( सामाना ) पंजाब में अब भी विद्यमान है । आज भी यहाँ जैनमंदिर, उपाश्रय तथा जैनी आबाद है ।
ब्राह्मण नीलकंठ परमार्हत् जैन धर्मानुयायी अवश्य ही विद्वान, प्रभावक, निर्भय, परम व्रतधारी श्रावक था । जिसने अपनी सूझ-बूझ तथा विद्वता से अपने राजा, देश, धर्म अपनी जान को जोखम में डालकर रक्षा की। उस समय सामाना में कौन राजा था, इस कथानक में नहीं है ।
और प्रजा की उसका नाम
गत शताब्दी से अब तक सामाना नगर में अनेकों धार्मिक व सामाजिक गतिविधियाँ
हुई हैं।
वि० सं० १९५२ में प्राचार्य श्री विजयानंद सूरि जी ने अंबाला शहर के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। उन्होंने वीरविजय जी, संपतविजय जी आदि तीन चार साधुत्रों को यहां भेजा । तब यहाँ ये संवेगी साधु दो शताब्दियों बाद आये थे ।
पुनः वि० सं० १९६१ में मुनि (बाद में प्राचार्य) श्री वल्लभविजय ने चौमासा किया तथा शत्रुंजय तीर्थ- पालीताना से शान्तमूर्ति मुनि हंसविजय जी के प्रयत्नों से भ० शान्तिनाथ जी आदि की पाँच जिनप्रतिमाएं यहाँ श्राई । भादों वदी १४ संवत १६६१ के दिन इन प्रतिमाओं का भव्य नगर प्रवेश हुआ ।
चौमासे के तुरन्त बाद ही मुनि श्री वल्लभविजय जी ने यहाँ पर एक खुले शास्त्रार्थ में स्था० मुनि (बाद में प्राचार्य) श्री सोहनलाल जी को हराया।
नए मन्दिर का निर्माण चालु हुना तथा माघ शुक्ल ११ वि० संवत् १९७९ (२३-१-१९२३ ई०) को श्री विजयवल्लभ सूरि जी ने प्रतिष्ठा कराई। मूलनायक भ० शान्तिनाथ जी को गादी पर विराजमान कराने की बोली यहाँ के ही सदाराम सागरचंद जैन परिवार ने ली ।
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