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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
है परन्तु वर्तमान में जो परिवार इस प्रदेश से निकल कर भारत आकर प्राबाद हो गये हैं उनके विषय में यहाँ कुछ प्रकाश डालेंगे ।
जैनों का श्रागमन
इस क्षेत्र में प्रोसवाल परिवार कहाँ से श्राकर कब श्रावाद हुए, इसके लिये लाला विशनदास जी लोढ़ा तथा लाला हेमराज जी सुराणा जो आपस में मामा-भानजा भी हैं वयोवृद्ध एवं सब प्रकार से सम्पन्न और बड़ े परिवारों वाले भी हैं, ये लोग पाकिस्तान बनने पर गाजियाबाद (दिल्ली के निकटस्थ और उत्तर प्रदेश) में आकर प्राबाद हो गये हैं । इन का कहना है कि उनके पुरखा खरतरगच्छीय समयसुन्दर और मुगल सम्राट शाहजहाँ ( विक्रम की १७वीं शती) के समय में राजस्थान से उठकर जेसलमेर, बहाबलपुर होते हुए गंडलिया नगर में आकर आबाद हुए । इनके रीतिरिवाजों से पता चलता है कि ये लोग नागौर, जेसलमेर आदि से उठकर यहाँ आए होंगे | गंडलियानगरी बन्नू से पूर्व दिशा की ओर तीन मील दूरी पर अवस्थित थी ।
एकदा यति जी गंडलिया में व्याख्यान दे रहे थे । इस समय गीदड़ बोला। जिसकी भावाज सुनकर यति जी ने जाना कि यह नगर उजाड़ हो जायेगा । इसलिये यति जी ने यहाँ के परिवारों को कहा कि- भाप लोग इस नगर को छोड़कर अन्यत्र जाकर नाबाद हो जाइये क्योंकि यह नगर कुछ समय में उजड़ जावेगा । इससे कुछ परिवार कालाबाग़ और लतम्बर में चले गये और बाकी वहीं रहे ।
गंडलिया में बाकी रहे हुए परिवारों में से एकदा एक परिवार के लड़के की बारात लैय्या जा रही थी । रास्ते में नदी उतरने पर जबरदस्त बाढ़ नाई । उसमें बारात के सब लोग बह गये और लैय्या नगर भी बह गया। परन्तु यहां का जैनमंदिर जिनके मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान थे बच गया । उसके चारों तरफ पानी ही पानी हो गया और मंदिर वाला स्थान एक टापू के रूप में परिवर्तित हो गया । रात्री में गंडलिया के मुख्य श्रावक को स्वप्न माया कि लैय्या वाले जैनमंदिर में से पार्श्वनाथ आदि तीर्थ करों की प्रतिमानों को निकाल ले
| प्रातःकाल होते ही नाव में वहाँ जाकर जब मूर्तियों को उत्थापन करके श्रावक लोग मंदिर से बाहर आये तब तत्काल वह मंदिर ढह गया । यह प्रतिमाएं मुलतान में लेजाकर वहां के मंदिर में स्थापित कर दी गई । मुलतान के मंदिर का वह विभाग जहाँ ये प्रतिमाएं विराजमान थीं, लैय्या के नाम से प्रसिद्ध था । इस बारात के डूबने की घटना के बाद लैय्या में बाकी के जो परिवार थे वे भी वहाँ से चले आये ।
गंडलिया में खरतरगच्छ के दादागुरु तथा क्षेत्रपाल का स्थान शीशम के एक वृक्ष के नीचे था । पाकिस्तान बनने से पहले तक यह स्थान मौजूद था । क्षेत्रपाल बहुत चमत्कारी था । लतम्बर, बन्नू, कालाबाग वाले प्रोसवाल भाबड़े परिवार अपने बच्चों के जन्म और विवाह के समय वहाँ जाकर क्षेत्रपाल की तेल और सिंदूर से पूजा करते थे । वहाँ जैनों की आबादी न रहने पर भी मुसलमान लोग भी क्षेत्रपाल की प्रशातना नहीं करते थे । कालाबाग सिंधु नदी के किनारे पर प्राबाद है । यहाँ नमक का पहाड़ भी है । यह सारा पहाड़ नमक की चट्टानों से भरपूर है । इसके नमक को संधव नमक कहते हैं। यानी सिन्धुदेश का नमक । इसे पहाड़ी धौर लाहौरी
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