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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
था इस लिए इसका शासनसूत्र भी सम्प्रति के हाथ में था। दशरथ के समय में भी वही वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि अनेक ग्रंथों में सम्प्रति को ही अशोक का उत्तराधिकारी लिखा है।
जैनसाहित्य में भी प्रशोक के बाद सम्प्रति को ही राजा बनने का उल्लेख है। अपने पितामह प्रशोक के समान ही सम्प्रति एक महान प्रजावत्सल, शांतिप्रिय एवं प्रतापी, साहसी, धीर-वीर और धर्मनिष्ठ सम्राट था। अवंति के श्वेताम्बर जैन धर्मानुयायी नगरसेठ की पुत्री सरतदेवी से कुणाल का विवाह हुअा था, उसकी कुक्षी से सम्प्रति का जन्म ईसा पूर्व २५७ में हुना। ईसा पूर्व २४० में प्रवन्ति में ही १६ वर्ष की युवावस्था में जैन श्वेताम्बर संघ के निग्रंथगच्छ के नेता प्राचार्य प्रार्य सुहस्ति' ने इसे प्रतिबोधित कर जनश्रावक के सम्यक्त्व मूल बारह व्रतों से संस्कारित कर दृढ़ जैनधर्मी बनाया। इस प्रकार इस महान् सम्राट को अपने धर्मगुरु तथा माता-पिता से जैनधर्म के संस्कार, भद्र एवं सौम्य प्रकृति मिले थे जिससे इसने एक प्रादर्श जैननरेश की भांति अपना जीवन व्यतीत करने में सफलता प्राप्त की थी। सम्प्रति का पारिवारिक जीवन भी सुखी और धर्मपरायण था। श्वेतांबर जैनसाहित्य के १-परिशिष्ट पर्व
1. Cowell and Neil Divyavadan P. 433 2. परिशिष्ट पर्व अध्याय ११ 3. जैनमनुश्रुति के अनुसार सम्प्रति पूर्वजन्म में अत्यन्त दुःखी भिखारी था। एक बार दुष्काल के कारण प्रजा को
अपने परिवारों के पालन-पोषण के लिये लाले पड़ गये, तो भिखारियों को खाने-पीने को कौन देता? यह भिखारी भी सारा दिन गली-गली, भीख के लिये भटकता फिरता, परन्तु इसे पेट की ज्वाला बझाने केलिये भीख न मिलती। एकदा प्राचार्य प्रार्यसहस्ति भिक्षार्थ इस नगर में आये। एक सेठ के घर भिक्षा के लिये गये। सेठानी ने बड़े श्रद्धा और भावभक्ति से गुरुदेव को आहार दिया और लड्डू लेने के लिये भी अत्यन्त प्राग्रह करने लगी। परन्तु निस्पृह गुरुदेव के मना करने पर भी उसने इनके पात्र में लड्डु दे ही दिये। भिखारी यह सारा दृष्य गली में खड़े होकर मकान की खिड़की को झांक कर देख रहा था। आहार लेकर जब गुरु महाराज मकान से बाहर पाये तो यह भिखारी भी उनके पीछे-पीछे हो लिया और उनके साथ उनके निवासस्थान (उपाश्रय) में पहुंचकर खाने के लिये लड्ड मांगने लगा। गुरुदेव ने अपने ज्ञान से जाना कि यह कोई तरनहारजीव है, इसलिये इन्होंने इसे कहा कि तुम भी हमारे जैसे जैनसाधु बन जामो. तो हम तुम्हें भरपेट खाने को लड्डु देंगे। भिखारी ने तुरंत जैनसाधु की दीक्षा ग्रहण की और गुरुदेव ने उसे भरपेट लड्डु खाने के लिये दिये। उसने इतना खाया कि उसे असाध्य अजीर्णरोग हो गया। तब बड़े बड़े समृद्धिशाली जैनगृहस्थ इस नवदीक्षित साधु की सेवासुश्रूषा के लिये उपाश्रय में प्रा पहुचे। अनेक उपचार करने पर भी वह रोगमुक्त न हो पाया। रोगी मन में सोचता है कि धन्य है यह संयमधर्म-जैन साधु का मार्ग। मैंने तो इसे प्रात्मकल्याण के लिये श्रद्धा से नहीं अपनाया, किन्त भूख मिटाने के लिये ही अपनाया है तोभी इस द्रव्यचरित्र के प्रभाव से मेरी इतनी सेवा-श्रूषा हो रही है। यदि मैं चंगा हो गया तो जीवन पर्यन्त इसका अपनी आत्मा के कल्याण के लिये निरातिचार पालन करूंगा। इस उत्तम भावना के साथ इस की मृत्यु हो गई। शुद्ध भावना के प्रताप से उपार्जित पुण्यकर्म के प्रभाव से यह मरकर इस जन्म में सभ्राट संप्रति बना।
एकदा प्राचार्य प्रार्य सुहस्ति उज्जयनी में पधारे। संप्रति को गुरुदेव को देखते ही जातिस्मरण ज्ञान (पहले जन्म का ज्ञान) हो गया और अपने पूर्वजन्म के उपकारी इस गुरुदेव के उपकार से उऋण होने के लिये उन्हें अपना धर्मगुरु स्वीकार कर श्रावक के बारह वत ग्रहण कर परमाहत बना ।
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