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चन्द्रगुप्त मौर्य और जैनधर्म
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नगर के बाहर एक सुन्दर बाग़ में ठहरे हुए थे। चंद्रगुप्त भद्रबाहु के पास गया और उन से स्वप्नों का फल पूछा । भविष्य में स्वप्नों का फल अनिष्टकारी जानकर चंद्रगुप्त ने उनके पास जैनमुनि की दीक्षा ग्रहण करली । स्वप्नों में भविष्य में होने वाले द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ने की संभावना होने से भद्रबाहु चंद्र गुप्तादि पांच सौ मुनियों के साथ दक्षिण में चले गये । अपने पट्ट पर विशाखाचार्य को प्रतिष्ठित करके; स्वयं एकांत में रहते हुए गिरिगुहा में भद्रबाहु का स्वर्गवास हुप्रा । इसके बाद मुनि चंद्रगुप्त भी गिरिगुहा ने निवास करने लगे।
(४) दिगम्बर ब्रह्मचारी श्री मन्नेमिदत्त द्वारा रचित 'अाराधना कथाकोष' में भी इसी प्रकार की कथा उल्लिखित हैं । इसलिये इसे पृथकरूप से देने की आवश्यकता नहीं है। बारह वर्ष के घोर दुर्भिक्ष की संभावना होने पर भद्रबाहु अपने मुनिसंध के साथ दक्षिण देश चले गये । यति लोगों के वियोग के कारण उज्जयनीनाथ राजा चन्द्रगुप्त भी भद्रबाहु से दीक्षा लेकर मुनि हो गया।
(५) इसी से मिलती जुलती कथा दिगम्बरी रामचन्द्र भुमुक्षु कृत पुण्याश्रव कथाकोष में भी पाई जाती है।
(६) श्वेतांबर जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रकृत परिशिष्टपर्व में भी चन्द्रगुप्त मौर्य को जन श्रावक तो लिखा है, पर उसके जनसाधु की दीक्षा लेकर दक्षिण जाने का कोई उल्लेख नहीं हैं।
(७) चिदानन्द नामक दिगम्बर कवि ने भद्रबाहु के संबन्ध में अपने रचित 'मुनिवंशाभ्युदय' नामक कन्नड़ काव्य में लिखा है कि श्रु त केवलि भद्रबाहु बेलगोला को प्राये और एक व्याघ्र ने उन पर आधात किया तथा उन का शरीर विदारण कर डाला। यह कवि व्याघ्रवाली घटना से नवीन प्रकाश डालता है।
(८) उपर्युक्त जैन साहित्य के सिवाय श्रवणबेलगोला (माइसोर) से प्राप्त अनेक संस्कृत व कन्नड़ी भाषा के शिलालेख भी इसी बात की पुष्टि करते हैं। इन शिलालेखों को प्रकाशित करते हुए श्रीयुत 'राइस' लिखता है कि- "इस स्थान पर जैनों की आबादी श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा हुई और उन की मृत्यु भी उसी स्थान पर हुई । अन्तिम समय में अशोक
रत्ननन्दी १२००० मुनि बतलाते हैं जो भद्रबाहु के साथ दक्षिण में गये, वहाँ जाकर चंद्रगिरिपर भद्रबाहु ने देहो. त्सर्ग किया। हरिषेण उज्जयनी में देहोत्सर्ग बतलाते हैं। चन्द्रगुप्त का ही अपरनाम जिनदीक्षा का विशाखाचार्य होना हरिषेण कहते हैं, परन्तु चन्द्रगुप्त को विशाखानन्दी से रत्नगिरि भिन्न मानते हैं। रामल्य, स्थूलिवृद्ध और भद्राचार्य को अपने-अपने संघों के साथ भद्रबाहने सिन्ध प्रादि देशों में भेजा, ऐसा हरिषेण कहते हैं और रत्ननन्दी
लिखते हैं कि रामल्यादि भद्रबाहु की आज्ञा को उल्लंघन करके उज्जयनी में ही रहे । 2. ततश्चोज्जयिनीनाथश्चन्द्रगुप्तो महिपतिः ।
वियोगाद्यतिनां भद्रबाहु नत्वाभवन्मुनिः (माराधन कथाकोष) । 3. श्रीनाथूराम दिगम्बर द्वारा अनुदित पुण्याश्रव कथाकोष देखिये । 4. आचार्य हेमचन्दकृत परिशिष्ट पर्व ८/४१५-४३५ 5. दिगम्बर जैनशिलालेख संग्रह पृष्ठ ५६ ।
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