________________
चन्द्रगुप्त मौर्य और जैनधर्म
२६७
सिद्धार्थ, धृतसेन, बुद्धिल, आदि गुरु परम्परा से क्रमशः अनेक महापुरुषों के पश्चात् [द्वितीय] भद्रबाहु स्वामी उज्जयनी में अष्टाँग-महानिमित्त के ज्ञाता, त्रिकालदृष्टा से भविष्य में बारह वर्षीय दुष्काल पड़ेगा, ऐसा जानकर सर्वसंघ ने उत्तरापथ से दक्षिणापथ को प्रस्थान किया। वहाँ पहुंचकर तप समाधि आदि की आराधना करके स्वर्गस्थ हुए-इत्यादि ।
दिगम्बर प्रभाचंद्र का भी इस शिलालेख में उल्लेख है।
इस शिलालेख में श्रुतकेवली भद्रबाहु [प्रथम] के बाद दिगंबर मुनि परम्परा की बीसियों मुनि पीढ़ियों के बाद भद्रबाहु [द्वितीय] जो निमित्तशास्त्र के पंडित थे, उनकों बारह वर्षीय दुष्काल पड़ने की आशंका से उत्तरापथ उज्जयनी नगरी से दक्षिणापथ जाने को लिखा है। और उन्होंने ही वहाँ अनशन करके स्वर्गपद को प्राप्त किया। इनका समय दिगम्बर विद्वान् ईसा की पाँचवी शताब्दी मानते हैं । पुनश्च पाठकों को यह बात भी ध्यान में रखने की है कि इसी शिलालेख में श्र तकेवली भद्रबाहु स्वामी [प्रथम] का भी उल्लेख है। पर उन का दक्षिण जाने का कोई उल्लेख नहीं है।
इस शिलालेख से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि श्रवणबेलगोला के शिलालेखों का सम्बन्ध न तो अशोक के पितामह चंद्रगुप्त और श्रुतकेवली भद्र बाहु प्रथम के साथ है और न ही अशोक के पौत्र चंद्रगुप्त के साथ है । दूसरी बात यह है कि अशोक का पौत्र चंद्र गुप्त नाम का कोई व्यक्ति हुआ हो ऐसा उल्लेख दिगम्बर साहित्य के सिवाय अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता। कोई-कोई विद्वान श्रवण-बेलगोला शिलालेखों को प्रमाणिक सिद्ध करने के लिये अशोक के पौत्र सम्राट सम्प्रति को ही चंद्रगुप्त द्वितीय मानकर इन शिलालेखों के मिलाने का अनुमान लगा बैठते हैं । यदि संप्रति और चंद्रगुप्त मोर्य द्वितीय को एक भी मान लिया जावे तो उसके समकालीन कोई भी भद्रबाहु नहीं हुए। इस बात के लिये श्वेतांबर और दिगम्बर दोनों एकमत हैं।
पाठकों की सुविधा के लिये हम यहाँ पर उपयुक्त विवरण में दिगम्बर लेखकों के चंद्रगुप्त पौर भद्रबाहु के विषय में जो भिन्न-भिन्न मत दिये हैं उनका संक्षिप्त विवरण देते हैं जिस से हम जान पायेंगे कि इन में से सब लेखकों के मत प्रापस में बिल्कुल मेल नहीं खाते, इस विषय में सब के मत सर्वथा भिन्न हैं । और किसी में श्रुतकेवली भद्रबाहु तथा चंद्रगुप्तमौर्य का दक्षिण जाने का संकेत मात्र भी नहीं है।
(१) तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ कृत (महावीर निर्वाण से ११वीं शताब्दी)। __ में लिखा है कि-मुकुटधारियों में चंद्रगुप्त ने अन्तिम जिनदीक्षा ली। तत्पश्चात् किसी ने जिन दीक्षा नहीं ली । १. इस में चंद्रगुप्त के साथ मौर्य का उल्लेख नहीं है और न ही भद्र बाहु क इस में कोई उल्लेख है । यह ग्रंथ महावीर के निर्वाण के बाद ११ वीं शताब्दी में लिखा गय है। इतने अर्से में कई चन्द्रगुप्त राजा हो गये हैं। लेखक का यहां किस चंद्रगुप्त से प्राशय है इसे
1. बुद्धिल के बाद गंगदेव, धर्मसेन हुए, पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, शंड, ध्रुवसेन, कंस, पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र
भद्रबाहु (द्वितीय) ईस्वीसन् ४७३ लगभग (देखें दिगम्बर डा० विद्याधर जोहरापुरकर तथा डा० के०सी
कासलीवालकृत वीर शासन के प्रभावक प्राचार्य, पृष्ठ १२,१७,४१ । 2. देखें टिप्पणी नं० १५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org