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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म र्वाद से ही वह इतने बड़े राज्य का अधिकारी बना था। इसने आपको कई बीघा उपजाऊ जमीन भी भेंट की थी। इन तीनों गुरु-शिष्यों के स्वर्गवास के बाद इनका कोई शिष्य न होने से यह यतियों की गद्दी समाप्त हो गई। जैन श्रीसंघ गुजरांवाला ने देवी के तालाब के किनारे यति बसंतारिख तथा इनके शिष्य यति परमारिख की चितास्थानों पर उनके स्मारक रूप स्तूपों का निमार्ण कर उनके चरणबिंब स्थापित किये । 'जो पूजों की समाधियाँ' के नाम से प्रख्यात थे।
विक्रम की १८ वीं शताब्दी से पंजाब में श्वेताम्बर संवेगी साधु-साध्वियों का प्रागमन न होने से और ढूंढिया (जो अपने मुंह पर सदा मुंहपत्ति बाँधे रहते हैं और जिनमूर्तियों-मन्दिरो को नहीं मानते) मत के साधु-साध्वियों का सतत आवागमन और निवास होने से सारे पंजाब में इस मत का प्रचार और प्रसार हो जाने से प्रायः सब श्वेतांबर जैन इस मत के अनुयायी बन चुके थे। जो इनके पुरखानों द्वारा पंजाब में जैनमन्दिर बनाये गए थे, उन्हें म्लेच्छों ने तोड़-फोड़ कर ढेर कर दिए थे । जो बचे खुचे रह पाये थे उनकी यति (पूज) लोग सारसंभाल तथा पूजा करते थे। अतः गुजरांवाला प्राबाद होने पर जोपोसवाल आकर बस गये थे वे सब ढूंढिया (स्थानकवासी) मत के अनुयायी थे।
वि० सं० १८८८ में मुनि श्री बूटेराय जी ने पंजाब में ढूंढक मत के साधु की दीक्षा ली । इस मत के ग्रंथों का अभ्यास करने के बाद उन्हें लगा कि जैनागमों के साथ इस मत का मेल नहीं खाता । पश्चात् वि० सं० १६१२ में अहमदाबाद में जाकर जैनागमानुकूल तपागच्छीय श्वेताम्बर जैनधर्म की (सवेगी) दीक्षा मुनि श्री मणिविजय जी से लेकर शुद्ध सनातन जैनधर्म को स्वीकार किया तब आपका नाम बुद्धि विजय जी हुा । पश्चात् पंजाब में सर्वत्र घूमकर आगमानुकूल इस प्राचीनतम जनधर्म का पुनरुद्धार किया। सामान्यतः सारे पंजाब में और विशेषकर जिला गुजरांवाला, पिंडदादनखां और जम्मु प्रादि के श्रावकों को प्रतिबोध देकर उन्हें अपने पुरखाओं द्वारा भलाए गये श्वेताम्बर जैन मूर्ति पूजक धर्म को पुनः स्वीकार कराया । तथा अपने गुजरांवाला, पपनाखा, किलादीदारसिंह, किला सोभासिंह, रामनगर, पिंडदादनखाँ, जम्मू आदि नगरों में जैनमन्दिरों का श्रावकों द्वारा निर्माण कराकर उनकी प्रतिष्ठाएं भी करायीं । आपके बाद आप के शिष्य श्री विजयानन्द सूरि (प्रात्माराम) जी ने भी इस मत को छोड़कर अपने शिष्य प्रशिष्यों के साथ श्वेताम्बर धर्म का सारे पंजाब में पुनः प्रचार और प्रसार किया। श्वेताम्बर जैनों का गुजरांवाला में बड़ा प्रभाव था । सब जैन परिवार सुखी और समृद्ध थे।
ई० सं० १९४७ (वि० सं० २००४) को पाकिस्तान बनने के समय यहां पर प्रोसवाल भाबड़ा जैनों के लगभग ३०० परिवार आबाद थे, जिनमें सवा दो सौ श्वेताम्बर जैनी थे तथा बाकी के ढूंढियामत के अनुयायी थे । ये सब परिवार पाकिस्तान बनने पर वहां से भारत में प्रा कर भिन्न-भिन्न नगरों में प्राबाद हो गये हैं। सब अमुसलिम (हिन्दू-सिख प्रादि) परिवार भी पाकिस्तान छोड़ पाये थे।
वि० सं० २००४ के चौमासे में जैनाचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी अपने शिष्य-प्रशिष्य परिवार सहित तथा प्रवर्तनी साध्वी श्री देवश्री जी अपनी शिष्याओं प्रशिष्याओं सहित गुजरां. वाला में ही विराजमान थे । पर्युषण पर्व की आराधना करके सब साधु-सध्वियाँ तथा गृहस्थ
1. इनका विशेष परिचय जीवन चरित्न के रूप में पागे देंगे।
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