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सिंधु-सैवीर जैनधर्म
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वैदिक आर्य लोग जनों को व्रात्य, अनार्य, दस्यु, दास आदि नामों से हीन संबोधित करते थे तथा इस प्राचीनतम जैन संस्कृति को अनार्य संस्कृति कहते थे। इस संस्कृति के प्रभाववाले जनपदों को अनार्य जनपद कहते थे।
जैनधर्म के सिद्धान्त (विचार) और प्राचार (चरित्र) अत्यन्त उत्कृष्ट थे। वैदिकधर्म भोग प्रधान होने के कारण उन पर जैनधर्म की छाप पड़ना अनिवार्य था। अत: अपने बचाव के लिये उन्हें ऐसी व्यवस्थाएं देनी पड़ी। इससे भी इस जनपद में जैनधर्म के प्रभाव की पुष्टि होती है।
विक्रम की बीसवी शताब्दी तक सिंध-पंजाब जनपद में चैत्यवासी यति भी विद्यान थे। यहाँ ये लोग 'पूज्य जी' के नाम से पहचाने जाते थे और इन के प्राचार्य 'श्रीपूज्य' जी कहलाते थे। इन लोगों ने इस जनपद में किसी न किसी रूप में प्राचीनतम श्वेतांबर जैनधर्म को एक दम लुप्त होने से बचाये रखा । परिणामस्वरूप संवेगी (श्वेतांबर) साधुओं का प्रावागमन न होने से और म्लेच्छ पाततायियों जैसे धर्मान्ध बादशाहों के राज्यकाल में विकट परिस्थिति में भी इन यतियों (पूज्यों) के प्रताप से जैनमंदिरों क! निर्माण तथा थोड़ा बहुत संरक्षण भी अवश्य होता रहा।
हिसार, सरसा, पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, अम्बाला, लुधियाना, जालधर, नकोदर, साढौरा, सुनाम, फगवाड़ा, पट्टी, अमृतसर, जंडियाला गुरु, लाहौर, मुलतान, बन्नु, कालाबाग, गुजरांवला, स्यालकोट, समाना, फ़रीदकोट, भटनेर आदि प्रायः सभी बड़े-बड़े नगरों में इन पूज्यों की गद्दियां थीं और इनके जैन मंदिर भी थे। इनके अपने प्राचार्य होते थे उन्हें श्रीपूज्य अथवा भट्टारक कहते थे। ये लोग जैनश्रमण की दीक्षा लेकर साधु के वेश को धारण भी करते थे, पर साधु के प्राचार का पूरी तरह पालन नहीं करते थे। परिग्रह धारी ये यति अवस्था में पूर्ण ब्रह्मचारी और पुरे आत्मसाधक थे । स्वयं अध्ययन-स्वाध्याय करने, शास्त्रों के गंभीर अर्थ को समझने के लिये, तत्त्वज्ञान की गहराइयों तक पहुंचने के लिये व्याकरण, न्याय, सिद्धांत के बड़ेबड़े गहन ग्रथों का गुरु की निश्रा में रहकर तलस्पर्शी अभ्यास-स्वाध्याय करते और फिर साहित्य सजन में जुट जाते थे। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती आदि देसी भाषाओं में भी सब विषयों के उच्चकोटि के ग्रंथों की रचनायें करते थे। जैन आगम और सिद्धान्त के प्रौढ़ विद्वान, चिकित्सा विज्ञान के मर्मज्ञ, ज्योतिष तथा मंत्र विद्या के पारंगत होने थे। तपस्वी जीवन, निर्मल आचरण, योगाभ्यास में दक्ष होते थे। धर्मानुष्ठान, धार्मिक क्रिया कांड, मन्दिरों-मूर्तियों के संस्थापक व प्रतिष्ठानों के कार्य में भी प्रवीण थे। जिनमन्दिरों की स्थापनाएं तथा प्रतिष्ठाएं स्वयं अपने नीजी द्रव्य से भी करते थे और श्रावक-श्राविकाओं को उपदेश देकर भी कराते थे । सम्पूर्ण जीवन धर्म-समाज और संस्कृति के उत्कर्ष के लिए लगा देते थे। सरकार की ओर से भी उचित सम्मान मिलता था। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी इनके परमभक्त बन जाते थे और इन्हें राजगुरु मानते थे। जैनसमाज तो इनके विहार में पलक-पावड़े बिछाती थी. अपने नगर में जब ये लोग पधारते थे तो बड़े अाडम्बर और ठाठ-बाठ के साथ इनका नगर प्रवेश कराते थे । धर्मोपदेश, धर्मशास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन, धार्मिक विधि-विधानों का भी श्रावकश्राविकानों को अभ्यास करा कर उन्हें धर्म में चुस्त और दृढ़ बनाते थे । इसलिये इनके प्रतिष्ठा
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