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मध्य एशिता और पंजाब में जैनधर्म
कारण यह था कि वे लोग उन्हें अब भी अपना राजा ही समझते थे और उनके पास भोग उपभोग की वस्तुओं का अभाव देखकर शरीर ढांपने, स्वारी करने, स्वादिष्ट भोजन सामग्री आदि की वस्तुएं लेने की साग्रह विनम्र प्रार्थना करते थे । इससे पहले अपरिग्रही मुनि को कभी उन्होंने देखा-सुना भी न था । परन्तु जैन मुनि के लिये ये सब वस्तुएं अनुपयोगी होने से प्रभु स्वीकार नहीं करते थे। इसलिये सारी प्रजा हतप्रभ तथा किंकर्तव्यविमूढ़ थी और सब कहते थे कि प्रभु कुछ नहीं लेते-प्रभु कुछ नहीं लेते, अब हम क्या करें !
इस प्रकार चैत्र वदि नौमी से लेकर दूसरे वर्ष के वैसाख सुदि २ तक निर्दोष आहार पानी न मिलने से १ वर्ष १ मास और १० दिन अन्न-जल लिये बिना ४०० दिनों तक प्रभु ने चौविहार (निराहार-निर्जल) उपवास का तप किया । यह तप ऋषभ का वर्षीय तप के नाम से विश्वविख्यात है । सतत विहार करते हुए पाप वैसाख सुदि ३ को प्रातःकाल हस्तिनापुर पधारे ।
उस समय हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र जनपद की राजधानी थी (वर्तमान में यह नगर उत्तर प्रदेशांतर्गत मेरठ जिले में मेरठनगर से २६ मील की दूरी पर है)। उस समय यहाँ आप के द्वितीय पुत्र बाहुबली के पुत्र सोमयश (सोमप्रभ) का राज था। इसका पुत्र राजकुमार श्रेयांसकुमार ऋषभदेव का प्रपौत्र था। जो इसके बाद यहां की राज्यगद्दी का अधिकारी था।
(१) ऋषभदेव के हस्तिनापुर पधारने पर सव लोग अपने साथ प्रभु को देने के लिए कुछ न कूछ लेकर अवश्य जाते, पर प्रभु के स्वीकार न करने पर लोग यह कहते हुए कि प्रभ कुछ नहीं लेते, कुछ नहीं लेते, उनके पीछे हो लिए प्रोर श्रेयांसकुमार को जब यह पता लगा कि प्रभ दस्तिनापर पधारे हैं तब प्रभ वे दर्शन करते ही उसे जातिस्मरण (पिछले जन्मों का) ज्ञान हो गया। उन जन्मों में वह जिस प्रकार जनमुनि को ग्राहार दिया करता था उस विधि को जातिस्मरण ज्ञान से जाना। इतने में कुछ लोग इक्षुरस (गन्ने के रस) से भरे हुए घड़ों को श्रेयांमकुमार को देने के लिये यहाँ प्रापहुंचे । श्रेयांसकुमार ने प्रभु की इस इक्षरस से चार सौ दिनों के तप का पारणा कराया और प्रभु ने इक्षुरस से व्रत को खोला । अर्थात् अर्हत् ऋषभ को चार सौ दिनों के (वर्षीय) तप का पारणा इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम हस्तिनापुर में इक्षुरस से श्रेयांसकूमार ने कराया । अतः मुनि को आहार देने का सर्वप्रथम श्रेय राजकुमार श्रेयांसकुमार को प्राप्त हया और लोगों ने इस पारणे के अवसर से जैनमुनि को निर्दोष आहार देने की विधि को जाना । शास्त्रकार इस आहारदान की विशेषता का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि
"पात्रं श्री ऋषभजिन. श्रेयांसः धेयसाऽन्वितो दाता ।
वित्तं शुद्ध क्षुरसो, न विद्यते भूतलेऽन्यत्र ॥" अर्थात् -श्री ऋषभदेव के समान पात्र, श्रेयांस के समान श्रद्धा-भक्ति और भावपूर्वक देने वाला दाता, इक्षुरस के समान शुद्ध-निर्दोष आहार इस पृथ्वी पर अन्यत्र नहीं हया।
विश्व में सर्वप्रथम मुनि को आहार देने की विधि का ज्ञान इस अवसर्पिणी काल में कराने का गौरव पंजाब में विद्यमान हस्तिनापुर की धरा को ही प्राप्त हुआ । अर्हत ऋषभ के पारणे के स्थान पर श्रेयांसकुमार ने इस पुनीत घटना की यादगार में एक स्तूप का निर्माण कराया और उस स्तूप के आगे श्री ऋषभदेव प्रभु के चरणबिंब स्थापित कर पादपीठ की स्थापना की।
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