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गांधार-तक्षाशिला में जैनधर्म
१२७ तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता श्री उमास्वाति भी इस उच्चनागरी शाखा के वाचक (उपाध्याय) पदवीधर श्वेतांबर जैन श्रमण थे। उन्होंने अपने द्वारा रची हुई तत्त्वार्थ सूत्र की प्रशस्ति में अपने आप को उच्चनागरी शाखा का बताया है।
चीनी बौद्ध यात्री फाहियान ईस्वी ४०० में भारत पाया। वह तक्षशिला से १६ मील हीलो नगर में पहुंचा। यह नगरक्षेत्र की सीमा में स्थित था। यहां से एक योजन (बौद्ध मान्यता के अनसार ७॥ मील) दूर उच्चक्षेत्र की राजधानी थी। इसी क्षेत्र में एक नगर महानगरी का नाम भी पाया है । महान का पर्यायवाची उच्च भी है । उच्चनगर सिंधु नदी के तीर पर कहा गया है। अत: उच्चनगर सिन्धु नदी के निकटवर्ती पार्वतीय प्रदेश में अवस्थित था। पं० कल्याण विजय जी का मत है कि यह नगर तक्षशिला के निकटवर्ती था।
श्री जिनप्रभ सरि ने अपने विविध तीर्थकल्प-कल्प नं० ४५ में चौरासी महातीर्थों का उल्लेख किया है । उसमें
"नगरमहास्थाने श्री भरतेश्वर कारितः । श्री युगादिदेवः।" तथा-"महानगर्पा उद्दण्ड विहारे श्री आदिनाथः ॥"
अर्थात -- महानगर (उच्चनगर) स्थान में चक्रवर्ती भरत के द्वारा निर्माण कराया हया युगादिदेव (श्री ऋषभदेव) का महातीर्थ है । तथा
महानगरी (उच्चनगरी) के उदंड महाविहार (विशाल जैनमन्दिर) में श्री आदिनाथ(श्री ऋषभदेव) की प्रतिमा विराजमान है ।
(१) विक्रम संवत् १२८० में जिनचन्द्र सूरि ने उच्चनगर में कई स्त्री-पुरुषों को दीक्षाएँ दी थीं। इस प्रसंग पर भी उच्चनगर का उल्लेख सिन्धु प्रदेश में पाया है।
(२) विक्रम संवत् १२८२ में प्राचार्य सिद्धि सूरि ने उच्चन गर में शाह लाधा द्वारा बनाए हुए जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा करायी थी । उस समय यहाँ ७०० घर जैनों के थे। यह वर्णन भी उनके सिन्ध में विहार का है ।
न्यग्रोधिका प्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुम नाम्नि । कोभीषणिना स्वाति-तनयेन वात्सी—सुतेना य॑म् ॥३॥ अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागमविहतमति लोकमावलोक्य ॥४॥ इदमुच्चैनागर वाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् ।
तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥५॥ अर्थात् ---जो गोत्र से कौभिषिणी थे और जो स्वाति पिता और वात्सी माता के पुत्र थे, जिनका जन्म न्यग्रोधिका नगर में हुआ था, जो उच्चनागरी शाखा के थे, उन उमास्वाति वाचक (उपाध्याय) ने गुरु परम्परा से प्राप्त हुए श्रेष्ठ अर्हत् उपदेश को भली प्रकार धारण करके तथा तुच्छ शास्त्रों द्वारा हतबुद्धि दुःखित लोगों के दुःख के परिताप की अनुकम्पा से प्रेरित होकर विहार करते हुए यह तत्त्वार्थ सूत्र स्पष्ट शास्त्र कुसुमपुर श्रेष्ट नगर में रचा । (उमास्वाती आचार्य पदवी धारक नहीं थे, वे वाचक (उपाध्याय) पदवी धारी थे इसीलिये प्राचार्यों की पट्टावलियों अथवा नामावलियों में उन का उल्लेख नहीं है)।
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