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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
रचना की, ग्रंथलेखन और उनकी प्रतिलिपि करने-कराने की शाखायें स्थापित की। इक्कीस शास्त्रभंडारों की स्थापना की। अनेक कवि, चारण, पंडित और विद्वान, साधु, तपस्वी महाराजा कुमारपाल की राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। ब्राह्मण विद्वानों, कवियों तथा आधुनिक साहित्यकारों ने भी इस आदर्श एवं सर्वतः सफल चरित्रवान जैनराजा की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । किसी ने इसे राजर्षि कहा है तो किसी ने अशोक मौर्य से तुलना की है उन्होंने श्रेणिक, संप्रति, महामेघवाहन खारवेल, सत्य प्रतिज्ञ अशोक महान, जैसे महान जैन सम्राटों के समकक्ष इसे स्थान दिया है । इस की समस्त दिनचर्या ही अतिधार्मिक तथा श्रमणोपासक एवं आदर्श नरेश के उपयुक्त थी । मात्र जैन मंदिर बनवा कर ही संतोष नहीं किया किन्तु स्वयं श्रद्धालु बन कर निरन्तर जिनपूजा भी करता था । मात्र इतना ही नहीं अपितु जैनधर्म की महिमा के प्रसार के लिये अष्टाह्निका (अट्ठाई) महोत्सव आदि भी बड़े उत्साह और ठाठ से करता था। ये महोत्सव प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के अंतिम आठ दिनों तक स्वयं अपनी राजधानी पाटण के मुख्य प्रसिद्ध कुमारविहार नामक मंदिर में करता था। चैत्र और आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन सायं रथयात्रा का वरघोड़ा पाडम्बर सहित स्वयं राजकर्मचारियों, मंत्रियों, व्यापारियों, प्रजाजनों सहित निकालता था। इसी महाराजा की प्राज्ञा से इस के आधीन १८ देशों के मांडलिक राजानों तथा सामन्त राजाओं ने भी अपने-अपने राज्यों में कुमारविहार नाम के जैन मंदिरों का निर्माण कराया और उन सब मंदिरों में भी ऐसे महोत्सव हमेशा करवाता था। अपने आधीन सारे राज्यों में जीवहिंसा भी बन्द करवाई । मात्र गुजरात में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में जैनसम्राट सोलंकी कुमारपाल का विशिष्ट स्थान है । धार्मिक सहिष्णुता भी इस में ऐसी थी कि यदि वह जैनतीर्थ शत्रुजय आदि का संरक्षक था तो हिन्दू तीर्थ सोमनाथ को मी विस्मरण नहीं किया, उसका भी जीर्णोद्धार कराया। यदि अपनी राजधानी अणहिलपुर पाटण में तीर्थकर पार्श्वनाथ का कुमारविहार जिनालय बनाया तो उस के निकट शम्भु का कुमारपालेश्वर शिवालय का भी निर्माण कराया।
प्रो० मणिलाल नभुभाई द्विवेदी लिखता है कि गुजरात अथवा अणहिलवाड़ की राज्य सीमा बहुत विशाल मालूम पड़ती है। दक्षिण में ठेठ कोल्हापुर का राज्य कुमारपाल की आज्ञा मानता था और भेंट भेजता था । उत्तर में काश्मीर से भी भेंट आती थी। पूर्व में चेदी देश तथा यमुनापार एवं गंगापार के मगधदेश तक इसकी आज्ञा का पालन होता था । पश्चिम में सौराष्ट्र, सिन्धु तथा पंजाब का भी कितना एक भाग गुजरात के प्राधीन था।
आचार्य हेमचन्द्र ने महावीर चरित्र में लिखा है कि कुमारपाल की आज्ञा का पालन उत्तर दिशा में तुकिस्तान, पूर्व में गंगा नदी, दक्षिण में विन्ध्याचल और पश्चिम में समुद्रपर्यन्त देशों तक होता है।
इससे स्पष्ट है कि परमार्हत् महाराजा कुमारपाल का राज्य काश्मीर पंजाब आदि में भी था और इन जनपदों में जैनमन्दिरों का निर्माण तथा जैनधर्म का प्रचार और प्रसार भी कराया था।
अशोक मौर्य और कुमारपाल सोलंकी की तुलना ___ कुमारपाल सोलंकी का राज-जीवन कई बातों में सम्राट अशोक मौर्य से मिलता-जुलता है। राजगद्दी पर आरूढ़ होने पर जिस प्रकार सम्राट अशोक को अनिच्छा से प्रतिपक्षी राजाओं के साथ लड़ना पड़ा, उसी प्रकार कुमारपाल को भी प्रतिपक्षी राजाओं के साथ लड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा। राज-सिंहासनारोहण के बाद तीन साल तक अशोक का शासन अस्त-व्यस्त रहा, यही हाल कुमारपाल का भी था। जिस प्रकार अशोक ७-८ वर्ष तक शत्र अओं को जीतने में व्यस्त रहा, उसी प्रकार कुमारपाल को भी उतने ही समय तक शत्र अओं के साथ जूझना पड़ा। इस प्रकार आठ-दस
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