________________
१९२
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
(३४) प्राचार्य देवगुप्त सूरि दसवां (वि० सं० १०११ से १०३३) ने वीरपुर, डमरेल में अनेक नर-नारियों को दीक्षाएं दीं। वीरपुर में सुमतिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई और यहाँ से शत्रुजय का संघ निकाला।
(३५) प्राचार्य सिद्ध सूरि दसवाँ (वि० सं० १०३३ से १०७४) ने वीरपुर में आदिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा की।
३६) प्राचार्य कक्क सूरि ग्यारहवाँ (वि० सं० १०७४ से ११०८) ने वीरपुर में सीमंधर स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। प्रार्य साहू ने यहाँ से शत्रुजय का संघ निकाला। डमरेलपुर में ४२ नर-नारियों को दीक्षाएं दीं।
__(३७) आचार्य देवगुप्त सूरि ग्यारहवाँ (वि० सं० ११०८ से १२२६) ने वीरपुर में अनेक नर-नारियों को दीक्षाएं दीं। शिवपुर में श्रीमाल शूरा ने सात साधर्मी वात्सल्य किये। संघपूजा करके प्रत्येक को स्वर्णथाली प्रभावना में दी। मरोटकोट के जाइया क्षत्रीय वंश के काम नामक मांडलिक राजा को किले की नींव खोदते हुए श्री नेमिनाथ की विशाल मूर्ति मिली । उसने जैनधर्म को स्वीकार किया और मन्दिर बनवा कर श्री नेमिनाथ को मूलनायक स्थापित करके प्रतिष्ठा कराई । रेणुकोट में राजा के बनाये हुए जैनमन्दिर की प्रतिष्ठा की । चौमासा डमरेल में किया।
__ (३८) प्राचार्य जिनवल्लभ सूरि (वि० सं० ११३० लगभग) ने मरु कोट (मरोट) में एक मन्दिर की प्रतिष्ठा की और उपदेश माला की एक गाथा पर छह महीने तक व्याख्यान दिया।
(३६) इसी शताब्दी में जिनभद्र उपाध्याय के शिष्य वाचक पद्मप्रभ भी त्रिपुरादेवी की आराधना करने के लिए सिंध आये थे । वे डमरेलपुर गये वहाँ जसा नाम के एक दानी श्रावक ने बड़ा भारी उत्सव किया । यहाँ श्रावकों ने एक मन्दिर बनवाया था, वाचक पद्मप्रभ ने उसकी प्रतिष्ठा की।
(४०) प्राचार्य सिद्ध सूरि ग्यारहवाँ (वि० सं० ११२८ से ११७४) ने डमरेल, वीरपुर, रेणकोट आदि नगरों में अनेक नर-नारियों को दीक्षाएं दीं। तक्षशिला में झांझन पारख के धर्मनाथ के जैनमन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। स्यालकोट में श्रावक नाड़ा-गोत्र डिटू के विमलनाथ के जैनमन्दिर की प्रतिष्ठा कराई।
जैन महाजनों के भारत में महान प्रादर्श कार्यों के कारण बड़े-बड़े राजानों-महराजाओं ने उन्हें शाह की पदवी से विभूषित किया ।
शाहों की ७४॥ ख्याती हैं अर्थात्:७४-७५ शाहों ने ऐसे प्रादर्श कार्य किये हैं जिनके उदाहरण खोजने से भी नहीं मिलते। इनमें से हम यहां सिंध-पंजाब में होने वाले कुछ शाहों का विवरण देते हैं
१-वि० सं० ३७२ में धवल पि० गोसल सा गोत्र भूरि ने वीरपुर से श्री शत्रुजय का संघ निकाला । सकल संघ की पूजा करके प्रत्येक व्यक्ति को सोने की सुपारियों की प्रभावना दी।
२- वि० सं० ४७० में गोकुल सा के पुत्र सोमा-गोत्र चोरड़िया ने मरोटकोट से शत्रुजय प्रादि तीर्थों का संघ निकला। भगवान ऋषभदेव के मन्दिर में चन्दनहार अर्पण किया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org