________________
कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधर्म
प्रसिद्ध मुहल्लों और बाजारों में घूमता हुआ-(१) साधु क्षेमसिंह (श्रावक) के पिता साहू विमलचन्द्र के बनाए हुए श्री शांतिनाथ के मंदिर में पहुंचा। वहाँ खरतरगच्छ के प्राचार्य श्री जिनेश्वर सूरि द्वारा (प्रह्लादनपुर में वि० सं० १३०९ माघ सुदि १० को) की हुई प्रतिष्ठित प्रतिमा के दर्शन किये । यह मंदिर खरतरवसही के नाम से प्रसिद्ध था।
(२) फिर संघ राजा नरेन्द्रचन्द्र के बनाये हुए जनमंदिर में गया। इस मंदिर में श्री महावीर स्वामी की स्वर्णमयी प्रतिमा के दर्शन किये। यह मन्दिर रायविहार (राजविहार), सोवनवसही (स्वर्णवस्ति) कहलाता था। जिसका अर्थ होता है राजा द्वारा निर्मित स्वर्णमन्दिर ।
(३) फिर रास्ते में संघ ने युगादिदेव (श्री आदिनाथ-ऋषभदेव) के विशाल और सुन्दर मन्दिर के दर्शन किये । यह मन्दिर वि० सं० १३२५ में मांडवगढ़ के पेथड़शाह ने निर्माण कराया था। इसने भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में ८४ जैनमन्दिरों का निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएं कराई थी। उन में से एक मन्दिर यह भी था । इस मन्दिर का नाम पेथड़वसही था। जिसका अर्थ होता है पेथड़शाह द्वारा निर्मित मन्दिर ।
इस प्रकार नगर के तीन मन्दिरों के दर्शन करके संघ ने इस दिन विश्राम किया। दूसरे दिन प्रातःकाल नगर के पास पहाड़ी पर कङ्गदक (कांगड़ा) नाम का जो किला है, वहाँ के लिये राजमहलों के बीच में होकर जाना पड़ता था। इस समय यहां के राजा नरेन्द्रचन्द्र ने अपने आत्मीय 'हरंब' नाम के नौकर को किले का मार्ग बतलाने के लिये भेजा । सघ राजभवनों के मध्य में होता हुआ किले के सात दरवाजों को लांघता हुआ किले के अन्दर पहुंचा।
(४) संघ ने वहां पर सुशर्मचन्द्र राजा के बनाये हुए प्रादियुगीन प्रतिप्रभावशाली श्री प्रादिनाथ भगवान के प्राचीन सुन्दर और विशाल मन्दिर के दर्शन किये। प्रभु के सन्मुख वन्दना और स्तवना की। श्रावक-श्राविकानों ने केसर-चंदन, फलों-फूलों आदि अष्टद्रव्यों से द्रव्यपूजा करके बन्दना और स्तवना स भावपूजा भी की और साधुओं ने वन्दना-स्तवना से मात्र भाव पूजा की।
1. नगरकोट के साह क्षेमसिंह खतरगच्छ विधि चैत्य-शांतिनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा जिनेश्वर सरि ने वि० सं०
१३०६ में की। श्रीप्रहलादनपुरे मार्गशीर्ष सुदी १२ समाधिशेखर, गुणशेखर, देवशेखर साधुभक्त-वीरवल्लभ मुनिनां तथा मुक्तिसुन्दरी साध्वी दीक्षा । तस्मिन्नव वर्षे माघ सुदी १० श्रीशान्तिनाथ-अजितनाथ-धर्मनाथ-वासुपूज्यमुनिसुव्रत-सीमंधर स्वामी-पद्मनाभ प्रतिमायः प्रतिष्ठा कारिताः च सा. विमलचन्द्र-हीरादि समुदायेन । तथाहि
लाघु विमलचन्द्र ण श्रीशांतिनाथो नगरकोट प्रासादस्थो महाद्रव्य-व्ययेन प्रतिष्ठापितः। (अगरचन्द नाहटा) 2. मांडवगढ (जरात) के सेठ पेथड़शाह (पृथ्वीधर) ने तपागच्छीय प्राचार्य श्री धर्मघोष सूरि के उपदेश से
" सातासंघ निकाले। इसने पंजाब के तीर्थों की यात्रायें भी की थीं। भारत में ८४ जैनमन्दिर बनवाये थे, जिनमें हस्तिनापूर, जालंधर (कांगड़ा), काश्मीर, पेशावर, वीरपुर, उच्चनगर, दिल्ली आदि के भी शामिल हैं। इस धनकुवेर ने अपने जीवनकाल में अखूट धन खर्च करके जैनधर्म की प्रभावना के बहुत काम किये । इसका पुन झांझन नाम का था। इसका विवाह दिल्ली के भीम की पुत्री सौभाग्यदेवी से हुआ था। झांझन भी अपने पिता के समान दृढ़ जैनधर्मी था और जैनधर्म की प्रभावना के लिए बहुत कार्य किये थे। इस प्रकार इस परिवार का पारिवारिक संबन्ध दिल्ली तक था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org