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कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधम
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पुरुषाकृति की है जिसके दोनों हाथ खोले में रखे हुए हैं । उसके सिंहासन पर बैल की प्राकृति खदी हुई है जो श्री ऋषभदेव का चिन्ह मानी जाती है। नीचे के भाग में पाठ पंक्तियों में लेख है जिसके प्रारंभ में ॐ संवत् ३० गच्छे राजकुले सूरि' ये शब्द अंकित हैं ।
इस प्रतिमा के लेख की नकल (१) प्रोम् संवत् ३० गच्छे राजकुले सूरिभू च (द)(२) भयचन्द्रः [1] तच्छिष्यो [s] मलचन्द्रास्य [स्त](३) त्पदा (दां) भोजषट्पदः [1] सिद्धराजस्ततः ढङग(४) ढङ गादजनि [च] ष्टकः । रल्हेति [हण] [त--](५) [स्य] पा-धर्म-यायिनी । अजनिष्ठां सुत्तौ । (६) [तस्य] 1 [जैन] धर्मध (प) रायणौ । ज्येष्ठ: कुंडलको (७) [भ्र] 1 [ता] कनिष्ठः कुमाराभिधः । प्रतिमेयं [च] (८) -जिना..."नुज्ञया । कारिता... ................[1]
भाषांतर प्रोम् संवत् ३०वें वर्ष में
राजकुल गच्छ में अभयचन्द्र नाम के प्राचार्य थे जिनके शिष्य अमलचन्द्र हुए। उनके चरणकमलों में भ्रमर के समान सिद्धराज था। उसका पुत्र ढंग हुआ । ढंग से चष्टक का जन्म हुआ। इसकी स्त्री राल्ही थी उसके धर्मपरायण ऐसे दो पुत्र हुए। जिनमें से बड़े का नाम कुंडलक था और छोटे का नाम कुमार । 'की आज्ञा से यह प्रतिमा बनायी गयी।।
इस लेख की लिपि प्राचीन शारदा लिपि है और (कीरग्राम) बैजनाथ की प्रशस्ति से बिलकुल मिलती है। इसलिए इसमें बतलाया गया लौकिक संवत् ३० कदाचित ई. स. ८५४ हो सकता है। गच्छ शब्द पर से जाना जाता है कि अभयचन्द्राचार्य श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी थे।
घटियाला के ई. स. ८६१ के शिलालेख से भी प्रतीत होता है कि मिहिरभोज गुर्जर प्रतिहार वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सर्व महान नरेश था। इसके पूर्वज कक्कुक द्वारा निर्मापित जिनालय में कुछ संवर्धन (वृद्धि) हुआ था। कांगड़ा में ई. स. ८५४ में किसी जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई थी।
____ सुप्रसिद्ध जैन तर्क ग्रंथ "सम्मतितर्क" के प्रसिद्ध टीकाकार तर्क पंचानन श्रीमद् अभयदेव सूरि राजगच्छ के ही प्राचार्य थे। क्या यही अभयदेवसूरि इस लेखवाले अभयचन्द्राचार्य न हों ? विद्वानों को चाहिए कि इस विषय में विशेष खोज करें। - दूसरी जो प्रतिमा है वह इसी प्रतिमा के पास में रखी थी (विज्ञप्ति त्रिवेणी की प्रस्तावना जिनविजय) और वह बैठी हुई स्त्री की प्राकृति जैसी थी। इसके भी दोनों हाथ खोले में रखे हुए हैं
- 1. डा० बुल्हर ने एपिग्राफिका इंडिका के प्रथम भाग में संक्षिप्त नोट के साथ यह लेख प्रगट किया है। 2. सन् ईस्वी १३१५ जयसिंह (कांगड़ा के राजा) से पहले के यहां के राजाओं का विवरण प्राप्त नहीं है अतः
इस समय यहाँ पर किसका राज्य था कह नहीं सकते।
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