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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
सागरोपाध्याय अपने मुनिमंडल और अनेक श्रावक-श्राविकाओं के साथ इस कांगड़ा क्षेत्र की यात्रा करने के लिये आये थे । यात्रा करके वापिस फरीदपुर लौट जाने के बाद उपाध्याय जी ने अपने प्राचार्य जिनभद्र सूरि को अपनी इस यात्रा के विवरण रूप वि०सं० १४८४ में एक विस्तार पूर्वक पत्र लिखा था। जिसका नाम विज्ञप्ति त्रिवेणी है और जिसे श्री जिनविजय जी ने प्रात्मानन्द जैन सभा भावनगर से ई० स० १६१६ (वि० सं० १९७३) में प्रकाशित करवाया। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
___"प्राचार्य जिनभद्र की आज्ञा लेकर १-श्री जयसागरोपाध्याय, २-मेघराजगणि, ३-सत्यरुचि गणि, ४-मतिशील गणि, ५-हेमकुंजर मुनि आदि अनेक शिष्यों प्रशिष्यों के साथ सिंध देश में विचरणे के लिए आये । वि० सं० १४८३ का चौमासा मम्मनवाहन में करके फरीदपुर नगर (अजधन-वर्तमान में पाकपटन) में पहुंचे । शुभ मुहूर्त में सा० सोमा के संघ के साथ नगरकोट (कांगड़ा) की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। फरीदपुर से थोड़ी ही दूर पर विपाशा (ब्यास) नदी थी। जिसके किनारेकिनारे चलते हुए एक रेती (बालू) के मैदान में संघ ने पहला पड़ाव किया। दूसरे दिन नदी पार कर के जालंधर की ओर संघ चला। रास्ते में आने वाले गांवों-नगरों को लांघता हुआ संघ निश्चिन्दी पुर। (घास का मैदान व झीलों) के पास मैदान में एक सरोवर के किनारे आकर ठहरा । संघ यहाँ से प्रस्थान कर क्रम से तलपाटक (वर्तमान में तलवाड़ा-देवालपुर) के निकट पहुंचा । यहाँ पर देपाल पुर (वर्तमान में देवालपुर) का संघ मुनियों को वन्दन करने के लिए प्राया। इस संघ ने यात्रासंघ पौर मुनियों को देपालपुर चलने के लिये बहुत आग्रह किया । पर संघ ने वहां जाने के लिये मना कर दिया । संघ ने यहाँ से आगे प्रयाण किया। ब्यास नदी के किनारे होता हुआ क्रम से मध्यदेश में पहुंचा । संघ जगह-जगह ठहरता हुआ इस प्रदेश को पार कर रहा था कि इतने में मुसलमान सिकन्दर बुतशिकन और षोषरेश यशोरथ की सेनाओं में परस्पर आक्रमण के समाचार पाकर संघ अपने बचाव के लिये पीछे लौट गया और व्यास नदी के कुंगुद (कंगनपुर) नाम के घाट से होकर नदी को वापिस पार करके (मध्यदेश, जाँगल, जालंधर और काश्मीर इन चार देशों की सीमाओं के मध्य रहे हुए) हिरियाणा (हरिकापत्तन-कानकायक) को निरुपद्रव स्थान जानकर वहाँ पर कानुक यक्ष के मंदिर के नजदीक संघ ने डेरे डाल दिये । यहाँ पर सा० सोमा को संघपति की पदवी दी गई तथा अन्य भी कइयों को अलग-अलग पदवियां दी गई, और इस नगर के संघ की भी भक्ति आदि की । संघ को यहाँ पांच दिन ठहरना पड़ा। छठे दिन सवेरे ही संघ ने यहां से कूच कर दिया। सपादलक्ष (काँगड़ा) पर्वत की तंग घाटियों को लांघता हुआ संघ फिर विपाशा नदी के तट पर पहुंचा । नदी को सुखपूर्वक पार करके अनेक ग्रामों और बड़े-बड़े नगरों में होता हुप्रा संघ ने दूर से सोने के कलशों वाले प्रासादों (जैनमंदिरों) की पंक्तिवाले नगरकोट जिसका दूसरा नाम सुशर्मपुर (वर्तमान में कांगड़ा) है, उसे देखा । नगरकोट के नीचे बाणगंगा नदी बहती है उसे पार करके संघ नगर में जाने के लिए तैयारी कर ही रहा था तब संघ का आगमन सुनकर नगरकोट का जैनसमुदाय स्वागत के लिए सामने पाया और नाना प्रकार के बाजों तथा जय-जयकार की उच्च ध्वनियों के साथ संघ का नगर प्रवेश कराया। संघ नगर के प्रसिद्ध
1. निश्चिन्दीपुर । घास का मैदान व झीलों बाला क्षेत्र । 2. हिरियाणा । यहां मध्यप्रदेश, जांगल, जालंधर और काश्मीर की सीमायें मिलती थीं।
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