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कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधर्म
विज्ञप्ति त्रिवेणी (कांगड़ा तीर्थ के यात्री संघ की यात्रा के वर्णन का पत्र) प्रादि अनेक विवरणों से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में विद्यमान जैनमंदिरों की यात्रा के लिये भारत के अनेक नगरों से पैदल यात्रा संघ समय-समय पर आते रहे। उनके समय में यहां के राजा और राजवंश जैनधर्म पर आस्था रखते थे। उस समय उन राजाओं के बनाये हुए जैनमंदिर बहुत विख्यात थे। इनके राजमहलों और किले में विद्यमान जैन मंदिर जो रायवसही, सोवनवसही के नाम से विख्यात थे उनमें स्वर्ण और रत्नों की जिनमूर्तियाँ थीं। जिनको यह राजपरम्परा अपना इष्टदेव मानती थी। यह राजवंश अंबिकादेवी (बाइसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि की शासनदेवी)को अपनी कुलदेवी मानता था। इन राजाओं का वंश कटौचक्षत्रीय था और आदिनाथ (जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव) को अपना इष्टदेव मानता था। इसका विशेष वर्णन आगे करेंगे।
___ हम लिख आये हैं कि कांगड़ा ज़िला पूर्वकाल में जालंधर या त्रिगर्तदेश के अन्तर्गत था। विज्ञप्ति त्रिवेणी में भी ऐसा ही उल्लेख है । नगरकोट का दूसरा नाम सुशर्मपुर भी था (वि० त्रि० पृष्ठ २३ व ४०)। कीरग्राम (पपरोला-बैजनाथ) जो काँगड़ा से २५ मील की दूरी पर ईशानकोण में अवस्थित है वहां के शिव बैजनाथ के प्रसिद्ध मंदिर की प्रशस्ति में भी सुशर्मपुर नाम पाया जाता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि शहर का नाम नगरकोट या सुशर्मपुर था और किले का नाम कङ्गदक दुर्ग था । इसी "कंगदक' का रूपांतर वर्तमान में 'कांगड़ा' के नाम में परिणत हो गया है। कांगड़ा का किला पहले बड़ी रोनक पर था। कटौच जाति के राजपूत जो कि असली सोमवंशी क्षत्रीय थे, चिरकाल से इस किले पर अपना अधिकार रखते थे। कहा जाता है कि महाभारत के विराट पर्व के ३०वें अध्याय में दुर्योधन की ओर से विराट नगर पर चढ़ाई ले जाने वाले त्रिगर्त देश के जिस सुशर्म नामक राजा का जिक्र है, उसी ने इस नगर को बसाया था और अपने नाम की स्मृति के लिये इसका नाम सुशर्मपुर रखा था। 2 कटोच राजपूत इसी राजा के वंशज हैं । आजकल भी इस जाति के राजपूत विद्यमान हैं। ये लोग आज भी अंबिकादेवी को अपनी कुलदेवी मानते हैं। पर जैनधर्म को भूलकर अन्यमती बन चुके हैं। म्लेच्छों-मुसलमानों के अत्याचारी आक्रमणों के कारण यह नगर अनेक बार ध्वंस हुआ और फिर बसा, परन्तु अंग्रेजी राज्य के प्रारंभ बाद यह स्थान सदा के लिये गौरव शून्य हो गया। वर्तमान काल में कांगड़े का एक भी व्यक्ति जैनधर्मी नहीं है। ठीक-ठीक हालत में कोई जैनमन्दिर भी नहीं है। वर्तमान जनसमाज में से कुछ वर्ष पहले यह कोई जानता भी नहीं था कि पूर्वकाल में यह स्थान श्वेतांबर जैनों का एक प्रसिद्ध और बड़ा भारी महातीर्थ था। सारे कांगड़ा-कुलु क्षेत्र में जैनों की घनी बस्ती थी।
1. देखो-Epigraphia Indica Vol. I, XVI. 2. विज्ञप्ति त्रिवेणी के पृष्ठ ४२ पर नगरकोट की प्रादिनाथ भगवान की मूर्ति का जो ऐतिहासिक वृतांत कहा है
उससे भी इस कथन की पुष्टि होती है। क्योंकि वहाँ भी लिखा है कि अरिष्टनेमि तीर्थंकर के समय सुशर्म । नाम के राजा ने इस मूर्ति की स्थापना की थी। संभव है कि इस नगर की और इस प्रतिमा की एक साथ ही स्थापनाएं हुई हों। विज्ञप्ति त्रिवेणी के सिवाय भी इस मूर्ति की स्थापना का उल्लेख मिलता है कि अंबिकादेवी द्वारा यह प्रतिमा लायी गयी थी जिसे यहाँ स्थापित किया गया था। इसका विवरण हम मागे करेंगे।
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