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जैनधर्म का महत्व
८.५.
रही । इसमें भी दो भेद हैं सापराध-निरपराध । इसमें जो निरपराध जीव हैं उनकी हिंसा नहीं करना और सापराध जीव को हनने की जयणा करना । क्योंकि सापराध जीव को अहिंसा श्रावक से नहीं पलती । कारण यह है कि घर में चोर चोरी करने यावे, अथवा स्त्री से कोई बलात्कार करे अथवा अपहरण करने आवे तो उसे मारना पड़े । सिंह श्रादि हिंसक प्राणी घात करने प्रावे तो उसे मारना पड़े । शत्रु श्राक्रमण करने श्रावे तो अपनी, मुहल्ले की नगर की, देश की सुरक्षा के लिये शत्रु को मारना पड़े । ऐसी अवस्था में संकल्प ( इरादे ) से भी हिसा का त्याग नहीं हो सकता । श्रतः निरपराध हिंसा के भी दो भेद हैं- सापेक्ष निरपेक्ष । गृहस्थ सापेक्ष हिंसा का भी त्याग नहीं कर पाता । कारण यह है कि श्रावक जब स्वयं घोड़ा गाड़ी, रथ बैल, टांगा आदि की सवारी करता है तो उसे चाबुक आदि भी मारनी पड़ती है । यहाँ घोड़े, बैल आदि ने उसका कुछ अपराध नहीं किया होता, तो भी उसे चलाने के लिये ऐसा करना पड़ता है । इस लिये श्रावक से जो जीव दृष्टि गोचर वे उन निरपेक्ष-निरपराध संकल्पपूर्वक त्रस जीव की हिंसा का त्याग करना संभव हैं । अतः श्रावक को ऐसी अहिंसा का पालन अवश्य करना चाहिये ।
इसे सरलता से समझने के लिये यहाँ नीचे का चार्ट देते हैं ।
जीव
साधु के अहिंसा व्रत का सोलहवीं भाग ही श्रावक पालन कर सकता है । जैसे कि स्थावर और त्रस में से स्थावर की हिंसा का त्याग न होने से सोलह में से आठ भाग रह गये | आरंभी हिंसा का त्याग न होने से चार भाग रह गये । सापराधी हिंसा का त्याग न होने से दो भाग रह गये । सापेक्ष हिंसा का त्याग न होने से एक भाग रहा ।
* सापेक्ष
निरपेक्ष
अतः साधु-साध्वी को स्थावर त्रस, सापराधनिरपराध, संकल्प - आरंभ, सापेक्ष-निरपेक्ष सब प्रकार की त्रिविध-त्रिविध हिंसा का त्याग होता है। श्रावक तो साधु से १ / १६ अहिंसा का ही पालन कर पाता है । कहने का सारांश यह है कि निष्प्रयोजन निरपराध संकल्प से त्रस जीवों की हिंसा न करूँ, इस प्रतिज्ञा का श्रावक-श्राविका अवश्य पालन करें । निध्वंसपना न रखे । मन में सदा ऐसी भावना रखे कि मेरे से कोई जीव न मर जाए ।
अहिंसा अन्य व्रतों की अपेक्षा प्रधान होने से इसका प्रथम स्थान है । खेत की रक्षा के लिए जैसे बाड़ होती है वैसे ही अन्य सब व्रत अहिंसा की रक्षा के लिये हैं । इसी से अहिंसा की प्रधानता मानी गयी है ।
* स्थावर
* प्रारंभ
* सापराध
त्रस
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संकल्प
निरपराध
हम लिखा हैं कि अशुभ का त्याग और शुभ का आचरण - व्रत के ये दो पहलू हैं । इन दोनों के होने से ही वह पूर्ण बनता है । शुभ ( सत्कार्य ) में प्रवृत्त होने का अर्थ है कि उसके विरोधी प्रसत्कार्यों से पहले निवृत्त होना । यह अपने श्राप प्राप्त होता है । इस तरह असत्कार्यो से निवृत्त होने का मतलब यह है कि उस के विरोधी सत्कार्यों की मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करना । यह भी स्वतः प्राप्त है । अहिंसा को भली-भांति समझने तथा उसे जीवन में उतारने * इस निशान बाली हिंसा का त्याग श्रावक-श्राविका से संभव नहीं है ।
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