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पंजाब में जैनधर्म
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राजगृह थी वहां शिशु
६४२ वर्ष पहले शिशुनाग
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श्रमण भगवान महावीर के समय में मगध देश में जिसकी राजधानी नागवंशी राजा श्रेणिक (बम्बसार - भिभीसार) राज्य करता था । ईसा से ने इस राज्य की स्थापना की थी । श्रेणिक इस वंश का पांचवां राजा था ईसा से ५८२ वर्ष पहले यह राजगद्दी पर बैठा । २८ वर्ष राज्य किया और अंगदेश को जीतकर अपने राज्य में मिलाया । श्रेणिक के द्वारा इसके राज्य में जैनधर्म का बड़ा भारी प्रचार हुआ । यह णायपुत्त ( ज्ञातृपुत्र ) भगवान महावीर का परमभक्त था और उनके प्रवचनों को सुननेवाला मुख्य श्रोता था । हिन्दू पुराणों में इसे शिशुनागवंशी कहा है । बौद्धग्रंथों में इसे हर्षकुल का कहा है। जैनग्रंथों में इसे वाहिकवासी कहा है । अर्थात् ज्ञातृपुत्र महावीर और तथागत गौतम बुद्ध का समकालीन श्र ेणिक राजा शिशुनागवंशी हर्ष ककुल का था, और वाहिक (पंजाब) देश निवासी था । इसके पूर्वज पंजाब से मगध में कब गये, यह इतिहास की खोज का विषय है । यही कारण था कि श्रेणिक के मांगने पर भी राजा चेड़ा (चेटक - भगवान महावीर के मामा ) ने अपनी पुत्री चेलना को देने से यह कह कर इन्कार कर दिया था कि तुम वाहिकवासी हो, इस लिये मेरी पुत्री का रिश्ता तुमसे नहीं हो सकता । पश्चात् चेलना अनुमति से उसका विवाह श्रेणिक से हो गया ।
पंजाब में जैनधर्म
हम लिख आये हैं कि कुछ वर्ष पहले यह समझा जाता था कि भारतवर्ष की सबसे पुरानी संस्कृति वैदिक है किन्तु ईस्वी सन् १९२२ - २३ की खोज ने भारत के इतिहास को कुछ और अधिक प्राचीनता प्रदान की है । उस वर्ष सिन्ध के लार्काना जिले में मोहन-जो-दड़ों स्थित एक टीले की खुदाई हुई । इस खुदाई से जो सामान प्राप्त हुए हैं उनके आधार पर पूर्व स्थित एक के बाद दूसरे कई एक शहरों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई है । जिनकी संस्कृति की ऐतिहासिकता ईसा से ३००० वर्ष पहले की बतलाई है । बाद में पश्चिमी पंजाब के माउंटगुमरी नामक नगर के समीप हड़प्पा नामक स्थान पर खुदाई हुई । उनके आधार पर पूर्व स्थित एक के बाद दूसरे कई एक शहरों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई । इस प्रकार सिंध, बिलोचिस्तान, पश्चिमी पंजाब, कच्छ, उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त, अफ़ग़ानिस्तान, सौराष्ट्र, राजपुताना आदि प्रदेशों में - चन्दु-दड़ो, लोहुंज दड़ो, कोहिरो, अम्री, नाल, रोपड़, पीलीबंगा, अलीमुराद, सक्कर-जो-दड़ो, काहू जो-दड़ो, आदि साठ स्थलों में मात्र सिन्धु नदी के किनारों के प्रदेशों में ही ऐसा नहीं है किन्तु बियासा श्रीर जेहलम नदी के विस्तृत प्रदेशों तक विस्तृत की गई खुदाई से भी उस काल की प्राचीन संस्कृति की सामग्री प्राप्त हुई है । इसलिए इस संस्कृति को पुरातत्त्वज्ञों ने सिन्धु घाटी की संस्कृति का नाम दिया है | पश्चिम में मकरात, दक्षिण में सौराष्ट्र, उत्तर में हिमालय पर्वत की शिवालक पर्वतमालाओं तक सिंधु-घाटी की संस्कृति की पुष्कल सामग्री प्राप्त हुई है । जिसके आधार पर एक पुरानी संस्कृति की जानकारी मिली है। इससे भारतवर्ष के इतिहास को ईसा से ३००० वर्ष पूर्व तक का प्राचीन माना जाने लगा है। मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त मिट्टी की सीलों (मुद्राओं ) पर एक तरफ खड़े आकार में भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्ति बनी हुई है, दूसरी तरफ बैल का चिह्न बना है । भगवान् ऋषभदेव जैनों (प्रातों) के इस अवसर्पिणी काल के प्रथम अर्हत् (तीर्थंकर) हैं और उनका लांछन बैल है । हम लिख आये हैं कि -- मोहन -जो-दड़ो की ऐतिहासिक खोज के लिए जो रायबहादुर
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