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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
जीवित है। दूसरा कारण यह भी था कि जब कोई प्राचार्य किसी श्रागम की वाचना प्रारंभ करते तो गृहस्थ लोग इसका महोत्सव करज्ञान पूजा किया करते थे । सब आगमों में भगवती सूत्र का विशेष महत्व है। ऐसे बहुत से उदाहरण जैन साहित्य में मिलते हैं कि अमुक भक्त ने श्री भगवती सूत्र श्राचार्य श्री से वांचवाया था, जिसकी हीरों, पन्नों, माणिक्यों अथवा सच्चे मोतियों से पूजा की और ३६००० प्रश्नों की ३६००० स्वर्णमुद्राओं श्रादि से पूजा की। इस भक्ति से आए हुए द्रव्य से पुन: आगम-शास्त्र आदि साहित्य लिखवाया जाता रहा । इस साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए करोडों
धन खर्चे से जैन लोग ज्ञान-ग्रंथ भंडारों की स्थापना करते आये हैं । इस से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय जैन समाज को प्रागम शास्त्र आदि पर कितनी श्रद्धा-भक्ति और पूज्यभाव था । इससे यह भी स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि साहित्य सर्जन और इसे लिखवाने में जितना हिस्सा जैनों का था उतना दूसरों का शायद ही हो। प्राततायियों द्वारा नष्ट किए जाने पर भी बचा हुआ साहित्य कम न था । किन्तु वह अवशेष साहित्य ऐसे लोगों के हाथों में पड़ गया कि जो प्रायः अपढ़, अविवेकी और लक्ष्मी के दास थे। इन लोगों ने अपनी विषयवासना की पूर्ति के लिए अथवा सारसंभाल की क्षमता न होने से या उसे अपनी निजी सम्पत्ति समझ कर उस अमूल्य साहित्य-निधि को पानी के मूल्य में विदेशियों के हाथों बेच दिया जो आज भी उन लोगों के पुस्तकालयों में विद्यमाद है । उदाहरण के तौर पर विदेशों के कुछ पुस्तकालयों का व्योरा यहां लिख दिया जाता है, जहां भारतीय साहित्य विद्यमान है ।
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विदेशों में जैन साहित्य
( १ ) लंदन में करीब हजारों पुस्तकालय हैं, जिनमें से एक पुस्तकालय में कोई १५०० हस्तलिखित भारतीय ग्रंथ हैं। उन में अधिकतर ग्रंथ प्राकृत संस्कृत भाषा में हैं ।
(२) जर्मनी में लगभग ५००० पुस्तकालय हैं जिनमें बर्लिन में ही बहुत से पुस्तकालय हैं एवं इनमें से एक पुस्तकालय में १२००० (बारह हजार) भारतीय हस्तलिखित ग्रंथ हैं । तब वहां के सब पुस्तकालयों में कितने ग्रंथ होंगे, इसका प्रन्दाजा लगाइए ।
(३) अमेरिका के वाशिंगटन व बोस्टन नगर में ही ५०० से अधिक पुस्तकालय हैं इन में से एक पुस्तकालय ये ४०००००० ( चालीस लाख) हस्तलिखित पुस्तकें हैं उस में भी २०००० पुस्तकें • संस्कृत - प्राकृत भाषा की हैं जो भारत से गई हुई हैं । विचार करिए कि भारत से गई हुई सब पुस्तकालयों में कितनी पुस्तकें होंगी ?
(४) फाँस में ११११ बड़े पुस्तकालय हैं जिनमें पैरिस के एक बिवलियोथिक नामक पुस्तकालय में ४०००००० ( चालीस लाख) पुस्तकें हैं उसमें बारह हजार पुस्तकें संस्कृत-प्राकृत भाषा की भारत से गई हुई हैं ।
(५) रूस में १५०० बड़े पुस्तकालय हैं, उनमें एक राष्ट्रीय पुस्तकालय भी है जिसमें ४०००००० पुस्तकें हैं उनमें २२००० पुस्तकें संस्कृत - प्राकृत की हैं जो भारत से गई हुई है ।
(६) इटली में कोई ४५०० पुस्तकालय हैं उन में भी प्रत्येक में लाखों पुस्तकों का संग्रह है कोई ६०००० पुस्तकें प्राकृत संस्कृत की हैं जो प्रायः भारत से गई हुई हैं
यह तो मात्र विश्व के छह पुस्तकालयों का परिचय दिया है, इससे अन्दाजा लगाइए कि सारे विश्व के पुस्तकालयों में इस अनुपात से कितने हस्तलिखित ग्रंथ होंगे जो भारत से वहाँ गए होंगे । (७) भारत से विदेशों में ग्रंथ ले जाने की प्रवृत्ति कोई अंग्रेजों के काल से ही प्रारम्भ नहीं हुई किन्तु इससे हजारों वर्ष पूर्व भी अपने देश की इस अमूल्य निधि को विदेशी लोग अपने-अपने देशों में ले जाते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देखिए विक्रम की पांचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाही -
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