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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म जैनधर्म के प्रचार का मुख्याधार जैनधर्म के प्रचार का मुख्याधार श्रमण-श्रमणियों पर आधारित रहा हुआ है । जैन साधुसाध्वियां सदा पैदल चलकर विचरते हैं । वे किसी भी प्रकार की सवारी नहीं करते। द्रव्य, धन-दौलत के व्यवहार से दूर रहते हैं । भिक्षावृत्ति से जो कुछ भी रूखा-सूखा भोजन मिल जाता है उसी से निर्वाह कर लेते हैं। इन्द्रियों का निग्रह करते हैं, संसारी प्रलोभनों से दूर रहते हैं। श्रमणियां (साध्वियां) पुरुषों के संसर्ग से तथा श्रमण (साधु) स्त्रियों के संसर्ग से दूर रहते हैं। रात्रि भोजन तथा अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण के सर्वथा त्यागी होते हैं । पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। अपने निवास के लिए कोई मठ अथवा आश्रम नहीं बनाते। सदा गांवों और नगरों में घूम-फिर कर जनजन को सत्पथ-गामी बनाते हैं। जिस नगर अथवा गांव में कुछ दिन स्थिरता करनी होती है वहां किसी गृहस्थ से निवास स्थान मांग कर ठहरते हैं । प्राचीन समय में मार्ग में भयानक जंगल पड़ते थे जो हिंसक जन्तुओं से परिपूर्ण थे। रास्ते में बड़े-बड़े नदी नालों को लांघकर जाना पड़ता था। चोर डाकुरों के उपद्रव और राज्योपद्रव भी कम नहीं थे । यस्ति (ठहरने की जगह) की दुष्प्राप्ति तथा दुभिक्षजनित उपद्रवों की भी कमी नहीं थी। विकट और भयंकर जंगलों, बिहड़-वनों, पहाड़ों, रेगिस्तानों, रणों आदि को लांगते हुए दूर-दूर के देशों तक स्व-पर कल्याण के लिए नंगे सिर, नंगे पांव जाड़ों की कड़कती सर्दी में तथा भीषण गर्मी से गर्म तवे के समान तपती धरती पर घूम-फिर कर प्रांधी और तूफानों को बरदाश्त करते हुए और अनेक प्रकार के परिषहों, उपसर्गों को सहन करते हुए सदा मुसाफरी करते आ रहे हैं । एवं जनता जनार्दन के कल्याण के लिए सद्धर्म का प्रचार प्रसार करते आ रहे हैं।
वर्तमान काल में प्राचीन इतिहास की दुर्लभता का कारण वर्तमान काल में जैनधर्म के भूतकालीन एवं प्राचीन इतिहास के न मिलने का प्रश्न सब जनता द्वारा हो रहा है। इसका उत्तर लिखने से पहले हमें यह कह देना चाहिए कि १-एक तो भूतकाल में भारत में जनसंहारक भीषण दुष्काल पड़ते रहे और वह भी एक दो वर्ष नहीं किन्तु कोईकोई अकाल तो १२-१२ वर्षों तक चालू ही रहे कि जिन की भीषण यंत्रणाओं से अनेकों नगर और ग्राम श्मशान तुल्य बन गए थे। जब कि उस समय जन-जीवन अस्त-व्यस्त ो रहा था, जनता जनार्दन अपने जीवन को टिकाए रखने की समस्याओं में उलझा हुआ था, ऐसे कटो-कटी के समय में नवीन साहित्य का निर्माण करना तो एक ओर रहा परन्तु पुराने की रक्षा भी असंभव हो रही थी। इसलिए शास्त्र भंडार जहां रखे थे, उनका बहुत भाग वहीं रखा रखाया नष्ट हो गया।
२-दूसरा कारण विदेशी आक्रमणकारियों के लगातार और एक के बाद दूसरे प्राक्रमणों का होना, जिसके परिणामस्वरूप ग्रामों नगरों को जनसंहार एवं अग्निदाह द्वारा शून्य अरण्यवत बना दिया गया । अर्थात् इन अाक्रमणकारियों ने प्रमुख साहित्य भंडार, ऐतिहासिक साधन, प्राचीन नगर-ग्राम,देवस्थान भी नष्ट भ्रष्ट कर दिए। फिर भी जो कुछ पुराना साहित्य तथा देवस्थान स्मारक
आदि बच पाये अथवा नए निर्माण किए गए उनको भी जैनधर्म के विरोधियों, अन्यधर्माधों, शैवों, हिन्दूओं, बौद्धों आदि ने या तो अपने सम्प्रदाय के रूप में बदल लिया अथवा उन्हें क्षति पहुंचाई । एवं धर्मांध मुस्लमानों के आक्रमणों से बर्बाद कर दिये गए। करोड़ों मनुष्यों को तलवार के ज़ोर से मुसलमान बना लिया गया। इतने से ही संतोष नहीं हो पाया अपितु मंदिरों, मूर्तियों, स्तूपों आदि
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