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जैनधर्म का महत्त्व
५. अपरिग्रह महाव्रत--साधु परिग्रह मात्र का त्यागी होता है, फिर भले ही वह घर हो खेत हो, धन-धान्य हो, या द्विपद चतुष्पद हो, अथवा अन्य भी कोई पदार्थ हो। वह सदा के लिए मन वचन-काया से समस्त परिग्रह को छोड़ देता है। पूर्ण असग, अनासक्त, अपरिग्रही और सब प्रकार के ममत्व से रहित होकर विचरण करता है । साधुधर्म का पालन करने के लिए उसे जिन उपकरणों की अनिवार्य आवश्यकता होती है उनके प्रति भी उसे ममत्व नहीं होता।
यद्यपि मूर्छा को परिग्रह कहा गया है, तथापि बाह्य पदार्थों के त्याग से अनासक्ति का विकास होता है, अतएव बाह्य पदार्थों का त्याग भी आवश्यक माना गया है।
__ जैन साधु किसी प्राणी अथवा वाहन की सवारी नहीं करता। वह सदा नंगे पांव नंगे सिर सर्वत्र पाद विहार द्वारा घूम फिरकर सब जीवों को आत्म-साधक बनाने के प्रयत्न में संलग्न रहता है । सर्दी-गर्मी भूख-प्यास, वर्षा-धूप की भी परवाह न करके वह सतत ध्यान, तप तथा प्राणियों के उपकार के लिए पर्यटक बना रहता है । सब प्रकार के परिषहों और उपसर्गों को सहर्ष सहन करते हुए भी अपने जीवनलक्ष्य का त्याग नहीं करता। किसी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म प्राणी की भी हिंसा उससे न हो जाय इसके लिए वह सदा सावधान रहता है और इस दोष से बचने के लिए वह अपने पास सदा रजोहरण रखता है तथा सचित कच्चा, पक्का अथवा दोष वाला ऐसा वनस्पति का आहार भी कभी ग्रहण नहीं करता। वस्तु के निकम्मे भाग को डालने से किसी एकेन्द्रिय जीव की भी हिंसा न हो जाय इसकी पूरी सावधानी रखकर स्थान को देखभाल कर तथा पूज-प्रमार्जन करके डालता है।
जैन साधु-साध्वी अलग-अलग स्थानों में रहते हैं। इनका न कोई मठ-मकान आदि होता है और न ही एक स्थान पर अधिक समय निवास करते हैं । वर्षाकाल के श्रावण से कातिक–चार मास किसी ग्राम या नगर में एक स्थान पर निवास करते हैं तथा वर्षा के बाद पाठ महीने विचरण करके स्व-पर कल्याण करते हैं।
इस प्रकार निग्रंथ श्रमण-जैन साधु एकेन्द्रीय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा से बचने के लिए सदा जागरूक रहता है।
जैन तीर्थंकरों ने पुरुष तथा स्त्री दोनों को पांच महाव्रतधारी और निर्वाण-मोक्ष का अधिकारी बतलाया है। अतः साधु के समान ही साध्वी का आचार भी समझ लेना चाहिए।
जैन श्रावक-श्राविका (गृहस्थ) का धर्म अर्हतों ने जब धर्मशासन की स्थापना की तो स्वाभिक ही था कि उसे स्थाई और व्यापक रूप देने के लिए संघ की स्थापना करते । क्योंकि संघ के बिना धर्म सिद्धांत चिरस्थाई नहीं रह पाते ।
जैन संघ चार श्रेणियों में विभक्त है, इसलिए इसे चतुर्विध संघ कहते हैं-१. साधु, २. साध्वी, ३.श्रावक, ४. श्राविका।
इस में साधु (मुनि) साध्वी (पार्यिका) का प्राचार एक जैसा है और श्रावक श्राविका का प्राचार एक-सा है। साधु-साध्वी का प्राचार हम लिख आये हैं । अब श्रावक-श्राविका के प्राचार का वर्णन करते हैं। कहा भी है कि --
दो चेव जिणवरेहि जाइ-जरा-मरण-विप्पमुक्केहि । लोगम्मि पहा भणिया सुसमण सुसावगो वा वि ।।
1. एक ऊनादि नरम वस्तु का गुच्छा, जिससे स्थान साफ करने पर जीवादि की हिंसा का बचाव होता है। 2. दिगम्बर भाई मनुष्य स्त्री को न तो पांच महाव्रतधारिणी साध्वी मानते हैं और न ही उसम सर्वकर्म क्षय
करने की क्षमता स्वीकार करते हैं। उसके निर्वाण के वे एकदम निषेधक हैं । जो कि तीर्थकरो के सिद्धांत के एकदम विपरीत है।
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