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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
श्रमरण भगवान् महावीर का तत्त्वज्ञान किसी भी महापुरुष के जीवन का वास्तविक रहस्य जानने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है :-(१) उस महापुरुप के जीवन की बाह्य घटनाएँ और (२) उनके द्वाग प्रचारित उपदेश । बाह्य घटनाओं से प्रान्तरिक जीवन का यथावत् परिज्ञान नहीं हो सकता। प्रान्तरिक जीवन को समझने के लिए उनके विचार ही अभ्रान्त कसौटी का काम दे सकते हैं। उपदेश, उपदेष्टा के मानस का सार, उनकी प्राभ्यन्तरिक भावनाओं का प्रत्यक्ष चित्रण है। तात्पर्य यह है कि उपदेष्टा की जैसी मनोवृत्ति होगी वैसा ही उसका उपदेश होगा। यह कसौटी प्रत्येक मनुष्य की महत्ता का माप करने के लिए उपयोगी हो सकती है। क्योंकि विचारों का मनुष्य के प्राचार पर बड़ा प्रभाव पड़ता है । इसलिए एक को समझे बिना दूसरे को नहीं समझा जा सकता। श्रमण भगवान महावीर के उपदेशों को हम दो विभागों में विभवत कर सकते हैं । (१) विचार यानी तत्त्वज्ञान (२) प्राचार यानी आचरण अथवा चरित्र । यहां पर उनके विचार अथवा तत्त्वज्ञान का संक्षिप्त परिचय देंगे। केवलज्ञान पाने के बाद भगवान् ने कहा- (१) यह लोक है, इस विश्व में जीव और जड़ दो पदार्थ हैं, इनके अतिरिक्त और तीसरी मौलिक वस्तु है ही नहीं। इसलिए यह कह सकते हैं कि जीव और जड़ के समूह को ही लोक कहते हैं । (२) प्रत्येक पदार्थ मूल द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य-अन्तवान है। (३) लोकालोक अनन्त है । (४) जीव और शरीर भिन्न हैं । जीव शरीर नहीं, शरीर जीव नहीं । (५) जीवात्मा अनादिकाल से कर्म से बद्ध है इसलिये यह पुनः पुनः जन्म धारण करती है । (६) जीवात्मा कर्म रहित होकर मुक्त होती है। (७) जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है तो भी अहिंसा संयम तथा तपश्चरण द्वारा कर्मों को सर्वथा अलग किया जा सकता है । (८) अात्मा स्वतन्त्र तत्त्व है तथा अरूपी व स्वदेहप्रमाण है। (६) जीवात्मा-ज्ञान-दर्शन-मय स्वतन्त्र पदार्थ है । (१०) विश्व छः द्रव्यात्मक है:--जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । इनमें जीव चैतन्य है, बाकी पाँच द्रव्य जड़ हैं, पुद्गल रूपी है, बाकी पांच द्रव्य अरूपी हैं । (११) विश्व के सब पदार्थ उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक नित्यानित्य हैं। (१२)जीव कर्म करने और भोगने में स्वतन्त्र है तथा अपने पुरुषार्थ बल से कर्मों का सर्वथा क्षय करके सिद्ध और मुक्त होकर शाश्वत आनन्द का उपभोक्ता बनता है। (१३) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि की अभिवृद्धि एवं अभिव्यक्ति से प्रात्मा अपनी स्वाभाविकता के समीप पहुंचते हुए स्वयं धर्ममय बन जाता है। (१४) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीनों की परिपूर्णता से जीवात्मा मुक्ति प्राप्त करती है। (१५) मुक्तावस्था में प्रात्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है । (१६) अपने भाग्य का निर्माता जीव स्वयं है। (१७) जीवात्मा मुक्त होने के बाद पुनः अवतार नहीं लेती। (१८) तत्त्व नव है-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष । (१६) मानव शरीर से जीवात्मा सब कर्मों को क्षय करके ईश्वर बनती है अर्थात् मुक्ति प्राप्त करना ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। (२०) जीवात्मा राग-द्वेष (मोहनीय कर्म) के क्षय से वीतरागता को प्राप्त करती है। यह ज्ञानावरणीय प्रादि चार घाती कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी बनती है। (२१) ईश्वर जगत का कर्त्ता नहीं है; जगत् तो अनादिकाल से प्रवाह रूप से अनादि और अनन्त है । इस प्रकार लोक जीव, अजीव, ईश्वर आदि के स्वरूप का विस्तार पूर्वक विवेचन कर अपनी सर्वज्ञता का परि.
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