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जैनधर्म का महत्त्व
ওও ___ संसार में तीर्थंकर पद सर्वोत्कृष्ट, सर्वोपरि और सर्वपूज्य होने के कारण उस काल में बौद्धधर्मादि भिन्न-भिन्न धर्मों के संस्थापक और सचालक अपने आपको तीर्थकर कहलाने में उत्सुकता पूर्वक प्रतिस्पर्धा की दौड़धूम मचा रहे थे । अर्थात् उस समय मत-प्रतिस्पर्धा (Religious rivalry) की होड़ा-होड़ मच रही थी। जैसे कि आज सत्ता और प्रसिद्धि (Power and popularity) प्राप्त करने के लिए होड़ मच रही है । परन्तु कहावत है कि “All that glitters is not gold" (प्रत्येक चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती)। इस उक्ति के अनुसार श्रुति युक्ति और अनुभूति द्वारा सूज्ञ और विज्ञजन (People of Culture and common sense) के लिए यह समझना कोई कठिन बात नहीं है कि तीर्थंकर होने के लिए जिस योग्यता का होना आवश्यक है वह भगवान महावीर के सिवाय उनके समकालीन अन्य किसी भी धर्म प्रवर्तक में नहीं थी।
भगवान् महावीर के परम पवित्र प्रवचन का आधार मनः कल्पना और अनुमान की भूमिका पर तो था ही नहीं। उनका तत्त्वज्ञान वास्तविकता पर अवलम्बित है। ऐसा कहना कोई अत्युक्ति न होगी कि उनका पदार्थ-विज्ञान और परमाणुवाद आधुनिक विज्ञानके (Atomic and moleculer theories) अणुवाद की मान्यता से तो क्या परन्तु डाक्टर एन्स्टीन, एडिंगटन, स्पेन्सर, डेल्टन और न्युटन की (theories) मान्यताओं को भी मात करता है। भारतीय तथा पाश्चात्य अनेक विद्वानों ने भगवान् महावीर के सिद्धान्तों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
जर्मन विद्वान डा० हर्मन जेकोबी कहते है कि:अंत में मुझे अपना निश्चित विचार प्रकट करने दो, मैं कहूंगा कि जैनधर्म के सिद्धान्त मूल सिद्धान्त हैं । वह धर्म स्वतन्त्र और अन्य धर्मों से सर्वथा भिन्न है । प्राचीन भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान का और धार्मिकजीवन का अभ्यास करने के लिए यह बहुत उत्तम है ।
____ बुद्ध ने केवल अहिंसा का उपदेश दिया था परन्तु भगवान् महावीर ने अहिंसा को मूल सिद्धान्त का दर्जा देकर चारित्र व्रत में सर्वप्रथम सम्मिलित किया। बौद्ध मत की अहिंसा थोथा उपदेश बनकर ही रह गयी । क्योंकि तथागत गौतम बुद्ध उसे अपने आचार और व्यवहार में उतार न सके । यदि उन्होंने अपने प्राचार और व्यवहार में उतारा होता तो बौद्ध जगत् कदापि मांसाहारी न होता। इससे स्पष्ट है कि वह अहिंसा धर्म के मर्म को समझ ही न पाये । भगवान् महावीर ने अपने आचरण और उपदेश से जगत के सामने अहिंसा का इतना सुन्दर स्वरूप रखा कि आज भी जैन समाज पूर्ववत कट्टर निरामषाहारी है। उन्होंने फरमाया कि किसी के असतित्व को न मिटायो जिस प्रकार प्राणि हिंसा दुर्गति का कारण है उसी प्रकार मांसभक्षण भी दुर्गति का कारण है।
आप ने ऐसे धर्म को धर्म कहा जो सब प्राणियों का रक्षक हो और ऐसे धर्म को निर्वाण का राजमार्ग कहा।
१. प्रो ० डी० सी० शर्मा अपनी पुस्तक 'हिन्दूइज़म में लिखते हैं :--
Buddhism only teaches the doctrine of the sanctity of animal life, but Jainism not only taught it, but also put it into practice. A Buddhist may not kill or do injury to any creature himself, but apparently he is allowed to purch
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