Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय
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निःस्वार्थ सेवा वि०सं० २००१ से ही आप संस्था की निःस्वार्थ सेवा कर रहे हैं । इस सेवा के बदले आपने संस्था से कोई लाभ प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया । न तो कभी एक पैसा संस्था से वेतन के रूप में आपने उठाया और न ही किसी कर्मचारी की सेवा आपने अपने घर के लिये प्राप्त की तथा न ही संस्था का फर्नीचर या अन्य छोटी-मोटी वस्तु अपने घर के उपयोग के लिये मँगवायी । यहाँ तक कि जब तक कि आप संस्था में रहते हैं, तब तक आप संस्था का भोजन या नाश्ता करना तो दूर संस्था का पानी तक नहीं पीते हैं । निःस्वार्थ सेवा का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि संस्था से कुछ लेना तो दूर उलटा आपने अपनी सम्पत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा संस्था को दानस्वरूप दे दिया है। दान की यह राशि लगभग ६७ हजार रुपये होती है। आपकी यह मान्यता है कि वह व्यक्ति कभी संस्था को खड़ी नहीं कर सकता और न ही उसे सुदृढ़ आधार प्रदान कर उसे विकसित कर सकता है, जो संस्था से वेतन पाता है या पारिश्रमिक पाता है। आपका कहना है कि जिस संस्थापक, संचालक के आर्थिक हित संस्था से जुड़ जाते हैं तो उस संस्था में स्वच्छ प्रशासन व अनुशासन कायम रह ही नहीं सकता । यही कारण है कि मरुभूमि की इस विद्याभूमि के इस वटवृक्ष को आय-व्यय को लेकर आपके प्रति कभी किसी ने कोई सन्देह व्यक्त नहीं किया । आपकी इस निःस्वार्थ सेवा भावना के प्रति समस्त जैन समुदाय नतमस्तक है।
प्रबुद्ध प्रशासक आप जितने सौम्य, सहृदय और सरल हैं, प्रशासन की आपकी पकड़ उतनी ही पुष्ट है । आपने कभी कोई सरकारी या कल-कारखाने की नौकरी नहीं की किन्तु प्रशासन में आपकी जो प्रबुद्धता है वह बेजोड़ है। संस्था का कलेवर दिन प्रतिदिन विस्तार पाता जा रहा है । बजट से लेकर कर्मचारियों की संख्या तक बढ़ रही है लेकिन आप अकेले संस्था की हर गतिविधि को गहराई से देखते हैं । छोटी-छोटी घटना की आपको जानकारी रहती है। कौन-सी वस्तु कब खरीदी गई और अब कहाँ है, उसकी खोज-खबर आपको है। संस्था का एक भी पत्र अथवा पत्रावली आपके पास नहीं रहती लेकिन आपको यह ज्ञात है कि अनुक पत्र का कब व क्या उत्तर प्रोषित किया था। संस्था के किस विद्यालय या उसके अनुभाग अथवा कार्यालय में कितने कर्मचारी हैं, उनका व्यवहार छात्रों के प्रति कैसा है, कैसा पढ़ाते हैं, उनका वेतन क्या है और कितना काम करते हैं, संस्था के प्रति वफादारी की स्थिति क्या है, आपके मनमस्तिष्क में उनका लेखा-जोखा है । विद्यालय का वार्षिक परीक्षा परिणाम क्या रहा ? कौन असफल रहा? क्यों रहा? कोई व्यक्ति संस्था-सेवा से मुक्त होकर अन्यत्र चला गया तो क्यों चला गया ? यहाँ उसे क्या कमी अनुभव हुई, किस कारण उसने संस्था छोड़ दी, आपकी पंनी दृष्टि इन सब पर रहती है । आप संस्था के किसी भी कर्मचारी के चयन में कभी हस्तक्षेप नहीं करते लेकिन शिक्षा जगत् में प्रतिष्ठित, प्रतिभावान और प्रबन्धकुशल व्यक्ति को संस्था सेवा में लाने में भी नहीं चूकते । आपका मानना है कि ऐसे व्यक्तियों के चयन से संस्था सुदृढ़ होती है, नींव मजबूत होती है, संस्था की प्रतिष्ठा प्रसरित होती है। कभी किसी कर्मचारी या अध्यापक ने भावावेश में आकर कोई गलती कर दी तो आप उसे बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से बताकर उसे अपनी गलती का स्वतः ही अहसास करा देते हैं।
आप प्रतिदिन प्रातः आठ बजे संस्था के प्रधान कार्यालय में आकर दिन प्रतिदिन के कार्यालय कार्य को निपटाते हैं । ग्यारह बजे तक इस काम में ही एकाग्र रहते हैं । आपके लिए कभी कोई छुट्टी नहीं रहती। सर्दी-गर्मीवर्षा कोई भी इस नियमितता में रुकावट नहीं डाल सकती । आप राणावास में हैं तो संस्था में आकर संस्था का काम देखेंगे ही। घर पर सस्था का कोई काम नहीं देखते । घर पर तो साधना चलती है।
कार्यालय में आने वाले प्रत्येक पत्न को आप स्वयं पढ़ते हैं, स्वयं ही उत्तर लिखवाते हैं, कोई भी पत्र पेंडिंग रखना आपके स्वभाव में नहीं है। आज का काम आज और आज का काम अभी आपके कार्य की मुख्य तकनीक है। दैनिक आय-व्यय का हिसाब स्वयं देखते हैं और जाँचते हैं। बिना आपकी स्वीकृति के एक पैसा भी इधर-उधर नहीं हो सकता । हिसाब-किताब के समम्त आँकड़े, बाजार में वस्तुओं के भाव, व्यक्तियों, कार्यालयों और व्यापारिक फर्मों के पते सब आपको मुह पर याद रहते हैं । संस्था के कार्य से सम्बन्धित प्रत्येक बैठक, सभा या मीटिंग में आप भोग लेते हैं ।
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