Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय
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पडिमाधारी श्रावक । आगम ग्रन्थों में पडिमाधारी (प्रतिमाधारी) श्रावकों के उल्लेख आते हैं किन्तु इस पंचम आरे में ऐसे श्रावक विरले ही मिलते हैं। क्योंकि यह आत्मोत्थान की एक क्लिष्ट और समय खपाने वाली क्रिया है। इसमें विशेष त्याग व अभिग्रह के माध्यम से साधु सदृश जीवन जीना होता है। ऐसी कुल ग्यारह पडिमाएँ (प्रतिमाएं) होती है। यथादर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, पौषध प्रतिमा, कायोत्सर्ग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, सचित्त प्रतिमा, आरम्भ प्रतिमा, प्रेष्य प्रतिमा, उद्दिष्ट वर्जक प्रतिमा और श्रमणभूत प्रतिमा। इन प्रतिमाओं को पूरा करने में साड़ेपाँच वर्ष का समय लगता है । आपने ये प्रतिमाएँ वि० सं० २००८ में आरम्भ की और वि० सं० २०१४ में समाप्त की। इन प्रतिमाओं को पूरा करने में आपको अनेक बाधाओं, उपसर्गों एवं कष्टों का सामना करना पड़ा है । तेरापंथ धर्मसंघ ही नहीं अपितु समस्त जैन संघ में ऐसे पडिमाधारी श्रावकों की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक है, उनमें से एक पडिमाधारी श्रावक हमारे अभिनन्दनीय श्री केसरीमलजी सुराणा हैं।।
संघ व संघपति में निष्ठा आपका समूचा जीवन धर्म की अतुल धरोहर है । धर्म आपके प्राणों का स्पन्दन है, धर्म आपकी निष्ठा का प्रतिबिम्ब है और धर्म आपके समर्पण का सौहार्द है। अहिंसा, करुणा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आपके दैनिक जीवन के लक्षण हैं। यद्यपि सर्वधर्म-समभाव आपके विमल विश्वास का अजस्र स्रोत है। किन्तु आत्म-कल्याण के पथ प्रदर्शक और गुरु आपके आचार्य श्री तुलसी हैं । तेरापंथ धर्म संघ के प्रति आपका समूचा जीवन समर्पित है । आचार्यप्रवर के दर्शनों के लिए आप सदा लालायित रहते हैं । जब भी समय की अनुकूलता होती है, आप आचार्यप्रवर के दर्शनों का लाभ अवश्य उठाते हैं । यही स्थिति संघ के प्रति है। संघ की श्रीवृद्धि में आप सर्वस्व समर्पण हेतु सदा तत्पर रहते हैं । राणावास में चातुर्मास काल में साधु-साध्वियों की सेवा में समय का सर्वाधिक सदुपयोग करते हैं । साधु-सन्तों को किसी तरह का कष्ट न हो, दैहिक उपसर्ग की पीड़ा न हो, शुद्ध आहार पाने की तकलीफ न होइस हेतु आप सदैव सक्रिय रहते हैं। "मावीतां" और "मोटा पुरुषां" के विनम्र सम्बोधन द्वारा आप समय-समय पर विराजित साधु-साध्वियों की कुशल-क्षम पूछते रहते हैं। तेरापंथ के आद्य आचार्य, आचार्यश्री भिक्ष का नाम तो आपके प्रत्येक श्वासोच्छ्वास के साथ जुड़ा हुआ है । भिक्षु स्वामी आपके इष्टदेव हैं, परमाराध्य हैं, आपके घट के वासी हैं और आपको भवसागर से तारने वाले हैं।
प्रगतिशील विचारों क पोषक आप समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग एवं बाह्याडम्बरों के प्रारम्भ से ही विरोधी रहे हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु आदि सामाजिक अवसरों पर आपश्री ने अनेक बार क्रांतिकारी कदम उठाकर अपने साहस का परिचय दिया है। छुआछूत, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा आदि को समूल नष्ट करने में सदैव तत्पर रहे हैं । समय-समय पर आपने अपने इन विचारों का पोषण भी किया है । अपने परिजनों के देहावसान के समय घर में आपने कभी रोना-धोना नहीं होने दिया जो इस प्रकार के रीति-रिवाज के प्रदर्शन का प्रयास भी करते थे तो आप उन्हें इन कर्मों के बन्धन बाँधने के बजाय उपवास रखकर कर्मों को क्षय करने का उपदेश देते । मृत्युभोज आपने कभी न तो किया और न कभी खाया । वि० सं० १९६५-६६ में आपके माता-पिता का मृत्युभोज करने का परिजनों का दबाव भी पड़ा लेकिन आप अटल रहे और मृत्युभोज में खर्च होने वाली सम्भावित राशि एक स्कूल के भवन को खरीदने हेतु बुलारम में दान दे दी। आपने अपने ससुराल में गालियाँ गाने के रिवाज का कड़ा विरोध कर उसे बन्द करा दिया । अपनी धर्मपुत्री श्रीमती दमयन्ती देवी का विवाह प्रगतिशील रीति से करके एक आदर्श विवाह का समाज में सूत्रपात किया।
सहृदय भ्रातृ हितैषी परिवार में आपने अपने भाई-बन्धुओं के साथ हमेशा सहृदयता तथा स्नेह एवं सौहार्द का व्यवहार रखा। भाई चाहे सगा हो अथवा चचेरा आपने उन्हें कभी पराया नहीं समझा। श्री मिश्रीमलज़ी सुराणा प्रारम्भ से ही आपके सहयोगी एवं परामर्शक के रूप में रहे हैं । आपने उन्हें सदा आदर व सम्मान दिया । अपने लघु भ्राता श्री भंवरलालजी सुराणा जब उन्नीस दिन के थे तब माँ गुजर गई तथा आठ वर्ष की अवस्था में पिताश्री का भी निधन हो गया, किन्तु
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