Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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[ बंधगो ६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे जहण्णाजहण्णभावस्स एत्थ विवक्खियत्तादो । एवं जाव अणाहारि ति ।
६२. सादिय-अणादिय-धुव-अर्द्धवसंकमाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं किं सादिओ संकमो किमणादिओ धुवो अधुवो वा ? सादि-अधुवो । सोलसकसाय-णवणोकसाय० किं सादिओ ४ ? सादि० अणादि० धुव० अर्द्धवसंकमो वा । आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडीणं सादि-अधुवो संकमो एवं जाव ।
६३. एवमेदेसि सुगमाणं परूवणमकादूण सामित्तपरूवणहमिदमाह
* एत्थ सामित्तं । वाली प्रकृतियाँ अजघन्य कहलाती हैं, क्योंकि यहाँपर प्रकृतिविषयक संख्याकी अपेक्षासे जघन्य और अजघन्य माना गया है।
इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । ____६६२. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव संक्रमानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इनका संक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। सोलह कषाय और नौ नोकषायका संक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रव है ? सादि, अनादि, ध्रव और अध्रुव चारों प्रकारका है। आदेशसे नारकियोंमें सब प्रकृतियोंका सादि और अध्रुव संक्रम है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त होनेपर ही मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्भव है। किन्तु उक्त दो प्रकृतियोंकी सत्ता अनादि कालसे नही पाई जाती, अतः इन तीन प्रकृतियोंका संक्रम सादि और अध्रुव इस तरह दो प्रकारका बतलाया है। अब रहीं सोलह कषाय और नौ नोकषायरूप पञ्चीस प्रकृतियाँ सो इनमें सादि आदि चारों विकल्प सम्भव हैं, क्यों कि इन पच्चीस प्रकृतियोंका जिन प्रकृतियोंमें संक्रम हो सकता है उनकी जब तक बन्धव्युच्छित्ति नहीं हुई तब तक इनका संक्रम अनादि है । बन्धव्युच्छित्तिके बाद पुनः बन्ध होनेपर इनका संक्रम सादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव भंग है । यह तो ओघसे विचार हुआ। आदेशसे विचार करने पर एक जीवकी अपेक्षा नरक गति सादि हे अतः इस अपेक्षासे सभी प्रकृतियोंके सादि और अध्रुव ये दो भंग ही सम्भव हैं। इसी प्रकार सभी मार्गणाओंमें जहाँ ओघ या आदेश जो व्यवस्था घटित हो जाय वह लगा लेनी चाहिये । उदाहरणार्थ अचक्षुदर्शनमें ओघ व्यवस्था लागू होती है इसलिये वहाँ ओघके समान प्ररूपणा जाननी चाहिये। अभव्य मार्गणामें सोलह कषाय और नौ नोकषायकी अपेक्षा अनादि
और ध्रुव ये दो ही भंग सम्भव हैं। तथा यहाँ मिथ्यात्वका संक्रम होता नहीं, क्यों कि इसकी -सजातीय प्रकृतियाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इसके नहीं पाई जाती। भव्यके एक ध्रुव भंगको छोड़कर शेष सब कथन ओघके समान बन जाता है। अब रहीं शेष मार्गणाएँ सो उनमें सब कथन नरक गतिके समान है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६३. इस प्रकार इन सुगम अनुयोगद्वारोंका कथन न करके चूर्णिसूत्रकार स्वामित्वका कथन करनेके लिये यह आगेका सूत्र कहते हैं
* अब यहाँ स्वामित्वका अधिकार है ।
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