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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास देता हुआ शोकमग्न हो जाता है और अपने जन्म को व्यर्थ मानता
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सेनापति अति रह्यो सोच में, भयो बहोत दलगीर । ऊचों फिरि देखै नहीं, नैन झरै अति नीर । माता हौं बिरथा जन्यो बही मास नौ भार । चाकर ते कूकर भलो, धुंग म्हारो जमवार ।
(सीताचरित पृष्ठ ६) वात्सल्य के वर्णन पंचकल्याणकों के अवसर पर हुए हैं, इसी प्रकार भयानक और अद्भुत रसों के प्रसंग भी प्रबन्ध काव्यों में यत्रतत्र आ गये हैं। सारांश यह कि न्यूनाधिक मात्रा में सभी रसों को कवियों ने प्रसंगानुसार अपनी रचनाओं में स्थान दिया है किन्तु अधिकांश का अवसान शांतरस में ही अन्ततः हुआ है। वे शांतरस की पुष्टि ही करते हैं। शांत के पश्चात् काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता है और उसके बाद विप्रलंभ शृङ्गार की। अन्य रसों में करुण, वात्सल्य और संयोग शृङ्गार के अलावा वीर, रौद्र, अद्भुत, भयानक का नमूना ढूढ़ने पर प्राप्त होता है।
काव्य-कथ्य
यह तो बारम्बार कहा जा चुका है कि जैन साहित्य मूलतः धार्मिक साहित्य है। रीतिकालीन जैन कवियों ने छिछले शृङ्गार अथवा लौकिक, काल्पनिक, रूमानी प्रेमाख्यानों की अपेक्षा धार्मिक और आध्यात्मिक साहित्य रचना में ही रुचि दिखाई है। इन कवियों की अधिक धर्मनिष्ठा और अनावश्यक साम्प्रदायिक वत्ति के कारण साहित्य के साथ कहीं-कहीं अन्याय भी हो गया है परन्तु मात्र इसी कारण समग्र जैन साहित्य की उपेक्षा उससे बड़ा अन्याय है और अब उसके निराकरण का समय आ गया है। विद्वान् मानने लगे हैं कि धार्मिक रचनायें भी उच्चकोटि की साहित्यिक रचनायें हो सकती हैं। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी आदि इस कथन के ज्वलंत उदाहरण हैं । इसी प्रकार स्वयंभ, पुष्पदंत, धनपाल से लेकर बनारसीदास, आनंदघन, यशोविजय आदि भी श्रेष्ठ साहित्यकारों की कोटि के कवि हैं। इनकी रचनाओं में धर्म और साहित्य का सुन्दर समन्वय हुआ है। १८वीं शती की कई काव्यकृतियों जैसे पावपुराण, बंकचोर की कथा
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