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। श्री वीतरागाय नमः। श्री परम पूज्य आचार्य प्रवर गहावीरकीर्तिप्रणीत
धर्मानन्द श्रावकाचार
* मंगलाचरण*
कर्मकाष्ट तप दाहि प्रभु, पाया पूरण ज्ञान। कहा धर्मानन्द जिन, प्रणमूं वह भगवान ॥१॥ अर्थ - श्री अरहंत भगवान ने तपश्चरण रूपी प्रबल अग्नि में अपने सर्वघाति चारों कर्मरूपी काष्ट (लकड़ियों) को नि:शेष भस्म करके केवलज्ञान रूपी अखण्ड अविचल ज्ञान ज्योति प्रकट की । सर्वज्ञ बन “धर्मानन्दश्रावकाचार"उपदिष्ट किया । उन अनन्तज्ञानधारी जिनेश्वर को नमस्कार कर मैं (आचार्य महावीरकीर्ति) उस सिन्धु से बिन्दु ग्रहण कर स्व शक्ति अनुसार लघुरूप में वर्णन करूँगा ॥१॥ • ग्रन्थ रचना की प्रतिज्ञा -
जग के सर्व ही धर्मों में, अहिंसा धर्म अनूप, उसका मैं संक्षेप से लिखू जिनोक्त स्वरूप ॥२॥ अर्थ - विश्व में अनेकों प्रकार के धर्म प्रचलित हैं। यद्यपि धर्म का १, मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभू भृतां ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये (सर्वार्थ सिद्धौ) अर्थ - जो मोक्षमार्ग के नेता है। कर्मरूपी पर्वतों के भेदने वाले हैं, विश्व = सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता है, उनकी, उन समान गुणों की प्राप्ति के लिए मैं पूज्यपाद आचार्य द्रव्य और भाव उभय रूप से वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ ॥ १॥ KanawanRMAERSHESAREERECEReasusarasREAssisusagasase
धामन्द श्रावकाचार-४५