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ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण स्वरूप विविध आचार्यों ने अनेक प्रकार से बतलाया है जो निम्न प्रकार हैं
१. दम्पत्ति एक दूसरे में संतुष्ट और प्रसन्न रहें, दांपत्य की मर्यादा के बाहर आकर्षका अनुभव न करें, गृहस्थों के लिए यही ब्रह्मचर्य अणुव्रत हैं।
२. दूसरे गृहस्थ के द्वारा स्वीकार की हुई अथवा बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है।
३. अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्निका, दशलक्षण आदि महापों में स्वस्त्री सेवन का भी त्याग करना तथा सदैव अनंग-क्रीड़ा का त्याग करने वाले जीवों को जिनप्रवचन में स्थूल ब्रह्मचारी कहा गया है।
४. जो गृहस्थ स्त्री के शरीर को अशुचिमय, दुर्गन्धित जानकर तथा उसके रूप लावण्य को मोहित करने वाला मानकर स्वस्त्री को छोड़कर शेष सम्पूर्ण स्त्रियों का अथवा स्व-पर सभी स्त्रियों का त्याग करता है, उसके ब्रह्मचर्य अणुव्रत है।
५. अवैध, अनुचित और अप्राकृतिक कामसेवन का परित्याग करके स्वास्थ्य रक्षा और धार्मिक नियमों का पालन करते हुए अपनी स्त्री में संतुष्ट रहना स्वदार संतोषव्रत है।
६. जिसें वेश्या, परस्त्री, कुमारी तथा लेपादि निर्मित स्त्री स्वीकार नहीं की जाती है, केवल स्वकीय स्त्रीसेवन में सन्तोष होता है, उसे आगम में चतुर्थ ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहते हैं।
७. जो मल के बीजभूत, मल को ही उत्पन्न करने वाले , मल प्रवाही, दुर्गन्धित लज्जाजनक व ग्लानियुक्त अंग का विचार करता हुआ कामसेवन से स्वस्त्री से भी विरत होता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक है।
इस व्रत का पालन न करने से रावण जैसा पराक्रमी राजा भी नरक गामी USARAISASARAMASCARSaamsasaMANASANATARRIALISAxsar
धर्माणपक्षश्रावकाचार-~२२४