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• मृत्यु का सत्कार
जीर्ण दुःखद तन गृह तजो लहु नवीन सुखदाय । इससे आत्मन् हर्ष से देहुं मृत्यु को सत्कार ॥ ९॥
अर्थ - कोई मनुष्य जीर्ण दुःखदायी शरीर रूपी गृह का त्याग कर सुख देने वाला ना नहाना हाता है। इसलिये हे आत्मन् ! हर्ष से इस शरीर का त्याग कर मरण का सत्कार करना चाहिये।
भावार्थ - यह मनुष्यों का शरीर भोजन करते हुए भी नित्य ही पल-पल जीर्ण होता जाता है, दिन-दिन बल घटता जाता है कान्ति व रूप मलिन होता जाता है सभी नशों के हड्डियों के जोड़ ढीले होते जाते हैं झुर्रियों युक्त हो जाता है, नेत्रों की ज्योति मंद हो जाती है, कानों की श्रवण शक्ति घटती जाती है, हाथों-पैरों में दिन-दिन कमजोरी बढ़ती जाती है, चलने की शक्ति धीमी होती जाती है, उठने-बैठने में श्वांस बढ़ने लगती है। कफ बढ़ने लग जाता है। अनेक रोग बढ़ते जाते हैं। अतः मृत्यु के आने पर बड़े हर्ष से व्रत, संयम, त्याग, शील में सावधान होकर ऐसा प्रयास करना कि फिर ऐसी दुःख की भरी देह को धारण ही न करना पड़े। और बड़े हर्ष के साथ मृत्यु रूपी मेहमान का आदर करना चाहिए ॥९॥
...अर्थ- सल्लेखनाधारी श्रावक क्रम-क्रम से आहार का त्याग करके दुग्ध, रस, पानी आदि पेय पदार्थों को भोजन में ग्रहण करें, पुनः क्रमशः दुग्धादि का त्याग कर मात्र गर्म-उष्ण जल ही ग्रहण करें। पश्चात् मट्टा-छाछ, पानी-उष्ण जल को भी त्याग दे और शक्ति के अनुसार उपवास धारण करें। पुनः पूर्ण प्रयत्न से पञ्चमहामंत्र णमोकार का जाप करते हुए प्रसन्न चित्त से शरीर को तृण समान त्याग दें। इस प्रकार सर्वानन्द की साधक काय सल्लेखना करे ।।८।। ९. जीर्णं देहादिकं सर्वं नूतनं जायते यतः।
मृत्यु किं न मोदाय सतां सातोत्थतियथा ।।... XABACAXACARA aurang RUUSUTRATUS
धमनिन्द श्रावकाधार-२८२