Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 293
________________ TVATREAMITATISTI A r usRealSAEXER शरीर को देखकर ग्लानि करना । मिथ्या स्तुति - मिथ्यादृष्टियों की स्तुति करना। चित्त सराहन- मन से मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना । ये सम्यक्त्व में दूषण उत्पन्न करने वाले पांच अतिचार हैं। १. शंका - जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे गये सूक्ष्म पदार्थों में संदेह करना शंका है। अथवा चारित्र निरूपण आगम में कहा गया है वह सत्य है या नहीं, जैसे निग्रंथों के मुक्ति कही है वैसे क्या सग्रन्थ और गृहस्थ अवस्था में भी मुक्ति होती है इस प्रकार चित्त में सन्देह लाना यह शंका नाम का अतिचार है। यह अतिचार सबसे प्रबल है, सम्यक्त्व का सबसे बड़ा अतिचार है । सम्यक्त्व धारण करने वालों को, देव-शास्त्र-गुरू पर विश्वास रखने वालों को इस अतिचार को नहीं लगाना चाहिए। २.कांक्षा - सांसारिक सुखों की इच्छा करना मुझे सम्यग्दर्शन के फल से स्वर्गादि सामग्री प्राप्त हो जाय अथवा इस लोक में मेरे धन-धान्य पुत्रादिक की विभूति मिल जाय इस प्रकार आकांक्षा रखना सम्यक्त्व का दूसरा अतिचार है। ३. ग्लानि या विचिकित्सा - घृणा करने का नाम है। रत्नत्रय से मंडित पर बाह्य में पसीना एवं उस पर लगी हुई धूलि से आई हुई ऊपरी मलिनता से ग्लानि करना ये स्नान नहीं करते' इत्यादि रूप से दूषित करना विचिकित्सा नामक अतिचार है। ४. मिथ्या स्तुति - मिथ्यादृष्टियों की स्तुति करना उनके चारित्र एवं ज्ञानादि गुणों का तथा उनकी क्रियाओं का वचन द्वारा कथन करना मिथ्या स्तुति नामक अतिचार है। ५. चित्त सराहन अर्थात् मन प्रशंसा - मन से मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान और चारित्र की प्रशंसा करना, उनके विद्यमान और अविद्यमान गुणों का हृदय में आदर करना, उनकी क्रियाओं को मन में भला मानना यह सब मन प्रशंसा नामका पांचवाँ अतिचार हैं। sasasareasanasisusamprasaNAINASEASESASRRIAmanawara धर्मानन्द श्रावकाचार२९१

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