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औचक....उजास
.... आचार्य श्री सन्मति सागर जी भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर तक चली आई श्रमण परंपरा आज भी जीवित है। श्रमण परंपरा में प्राण फूंकने वाले समय-समय पर अनेक आचार्य हुए हैं, जिनमें आचार्य धरसेन, सुमत सूतबाले, बुंद.द. समंतभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, अमृतचन्द्र स्वामी, शुभचंद्र आदि स्मरणीय हैं। ___ इस श्रमण परंपरा में प्राण फूंकने का कार्य दक्षिण के वयोवृद्ध संत मुनिकुञ्जर आचार्य श्री आदिसागरजी ने भी किया। वे अंकलीकर आचार्य अथवा अंकलीक स्वामी के नाम से भी जाने जाते हैं।
आचार्य प्रवर श्री आदिसागरजी महाराज (अंकलीकर) घोर तपस्वी और आत्मज्ञानी आचार्य थे। उन्होंने उस समय के भीषणकाल में भी खूब धर्मप्रभावना की। वे जगह-जगह धर्मोपदेश देकर जनता को धर्म के मार्ग पर लगाते थे। उनके प्रखर शिष्य आचार्य महावीरकीर्ति जी ने उनकी कीर्ति को और भी विस्तृत किया था । इन श्री महावीर कीर्ति जी महाराज में अपने गुरु के समान गुण विद्यमान थे। ये अठारह भाषाओं के जानकार भी थे। जिस क्षेत्र में जाते थे, वहीं की भाषा में प्रवचन करते थे। ____ आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज ने अपने गुरु की स्तुति मे एक 'प्रबोधाष्टक' नामक स्तोत्र की रचना की थी जो स्वोपज्ञ टीका के बाद एक ग्रंथ रूप में विकसित हो गया। शार्दूलविक्रीडित छंद में रचित इसके अत्यन्त सुंदर श्लोक शांतरस से परिपूर्ण हैं । कालान्तर में इस ग्रन्थ की हिंदी टीका प्रथम गणिनी आर्यिका विजयमतिजी की योग्य शिष्या आर्यिका विमलप्रभा जी ने की है, जो प्रकाशित भी हो चुकी है।
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धर्मानन्द श्रावकाचार-३३३