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आचार्य श्री की रचनाधर्मिता से कितने सुंदर ग्रंथों का सृजन हुआ है, यह बात अभी तक अजानकारी के गर्भ में ही थीं, पर अभी कुछ वर्षों से उनकी कृतियां प्रकाश में आ रही हैं। उनकी तथा उनके गुरु आचार्य श्री आदिसागरजी (अंकलीकर) की कृतियों का यहाँ संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जाता है
प्रबोधाष्टक - यह आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी द्वारा अपने दीक्षादाता गुरु की स्तुति के रूप में लिखी गई सुंदर कृति है। इसकी स्वोपज्ञ संस्कृत टीका भी उन्होंने स्वयं की थी । इसकी हिंदी टीका आर्थिका विमलप्रभा जी ने की है। जो बहुत सुन्दर बन पड़ी है। नामानुरूप ग्रंथ में जीव को प्रबोध देने वाले आठ श्लोक शार्दूलविक्रीडित छंद में रचनाबद्ध है।
जिनधर्म रहस्य - यह एक उपदेशात्मक रचना है। इसके मूल प्रेरणास्रोत आचार्य श्री आदिसागरजी (अंकलीकर) हैं। कुल २६१ श्लोक प्रमाण वाक्यों में श्रावकों के लिए मूलरूप से मार्गदर्शन दिया गया है। कालान्तर में इसका हिंदी अनुवाद आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी ने, पद्यानुवाद गणिनी आर्यिका विजयमतिजी ने तथा संस्कृत अनुवाद प्रोफेसर प्रकाशचंद्रजी ने किया था । जो आज प्रकाशित होकर हमारे सामने हैं।
प्रायश्चित्त विधान - किस दोष के हो जाने पर क्या प्रायश्चित्त होता है। प्रायश्चित्त कैसे किया जाता है ? आदि चर्चाओं का संक्षिप्त रूप से संकलन करने वाली यह कृति आचार्य श्रीआदिसागरजी (अंकलीकर) की भावोक्त रचना है। इसका लेखन ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी वि. सं. २९७१ में हुआ। कालान्तर में इसका पद्यानुवाद संस्कृत भाषा में आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी ने महावीर जयंति वि. सं. २००१ में पूर्ण किया । इसका हिन्दी अनुवाद गणिनी आर्यिका विजयमति जी ने मगशिर शुक्ला दोज वीर नि. स. २५२९ में पूर्ण किया। १०८ गाथा निबद्ध यह कृति आदरणीय है। AsaneKesasaratalamaaaaasasRSANSAREERSagarmageawasana
घमलिन्द श्रावकाचार-८३३४
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