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CANANANANANANASUMUVANZARALAARAAAAASAVANA •७. सदाचर्य प्रतिमा
काम वासना विरत नित, तजत सकल त्रिया संग। ब्रह्मचर्य प्रतिमा व्रती, पालत शील अभंग ॥ ८॥
अर्थ - इस प्रतिमा के धारण करने के पूर्व प्रतिमाधारी स्वदार संतोष रूप ब्रह्मचर्य पालन करता था । अर्थात् पर स्त्री संभोग मात्र का त्यागी था । परन्तु सप्तमपद ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी नव कोटि से स्त्री मात्र संभोग का त्याग कर देता है। अर्थात् कामवासना से पूर्ण विरक्त हो जाता है। चेतन-अचेतन सभी प्रकार की स्त्रियों, हाव-भावों में विरक्त हो जाता है। शील नवबाड़ों को धारण करता है। अपने ब्रह्मचर्य व्रत में लगने वाले पाँच अतिचारों का त्याग कर निरतिचार व्रत पालन करता है । वह विचार करता है यह शरीर माता के रज व पिता के वीर्य से उत्पन्न होता है अतः इसका बीज ही मल है, निरन्तर नव द्वारों से मल प्रवाहित होता रहता है - अर्थात् मल ही इसकी योनि है, जिस प्रकार मल से निर्मित मल से भरा हो तो क्या कोई सत्पुरुष उसे ग्रहण करेगा? नहीं, स्पर्श भी
१. अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं, नाश्नाति यो विभावर्याम् । सच रात्रिभुक्ति विरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १४२ ।। र. क. श्रा.।
अर्थ - प्राणियों के प्रति दयालु चित्त हो जो श्रावक, नवकोटि से रात्रि में अन्न, पान, खाद्य, स्वाध इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है वह रात्रि भोजन त्याग प्रतिमाधारी है। इसे दिवामैथुन प्रतिमा भी कहते हैं - २. रात्रावपि ऋतावेव सन्तानार्थ मृतावपि ।
भजन्तिवास्वम कान्तां न तु पर्व दिनादिषु । अर्थ - दिन में मैथुन का त्यागी सन्तानाभाव में सन्तान की इच्छा से ऋतुकाल में अर्थात् रजस्वला अवस्था में रात्रि को भी अपनी विवाहित स्त्री का भी सेवन नही करते हैं और अष्टमी-चतुर्दशी पर्व के दिनों में भी सर्वथा मैथुन सेवन का त्याग कर ब्रह्मचर्य पालन करते हैं। इसे दिवामैथुन त्याग प्रतिमा कहा है।।७।। SARANASAsasaraMASTEGERMATRasaRRAHARASHRAMANASAER
घत्तिन्द श्रावकाचार-~३१८