Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 332
________________ sataraeasestarsatirek RECRAFTikatihari कर व्रतों का पालन करेगा, निरतिचार श्रावक की प्रतिमाओं के व्रतों-नियमों का पालन करेगा वह स्वर्ग को प्राप्त कर सुरेन्द्र अहमिन्द्रादि के सुख प्राप्त कर परम्परा से मुक्ति सुख प्राप्त कर अमर पद प्राप्त करेगा ॥२०॥ __संसार परिभ्रमण व दुःख परम्परा का मूल हेतु मिथ्यात्व है। प्रथम आत्म हितेच्छु को इसका नवकोटि से त्याग करना चाहिए तभी धर्मानन्द की प्राप्ति हो सकती है। क्योकि इनका रात्र दिवस के समान परस्पर विरोध है । याद रहे एक म्यान में दो तलवार नहीं समाती। मनुष्यफल की सफलता स्व-पर कल्याण में है। यह योग्यता इस ग्रन्थ की शिक्षा से अवश्य प्राप्त होगी ।। २१॥ • इस कृति की आवश्यकता - जो बुध धर्मानन्द का करन चहत अभ्यास। उन हिन्दी काव्य यह, सुगम सुखद गुणरास ॥ २२॥ छन्द काव्य गुणहीन मैं, धर्मानन्द आसक्त । शब्द अर्थ की भूल को, शोधि पढउ गुण भक्त ॥ २३ ॥ धर्मानन्द ही जग बढ़ो, जब लग नभ शशि भान। महावीरकीर्ति कृति यह, तब तक पढ़ें सुजान ॥ २४ ॥ अर्थ - सम्यग्ज्ञानी प्रत्येक विवेकी धर्मानुकूल आचरण करता है। प्रत्येक मानव अपने श्रम का फल अवश्य चाहता है। धर्म का फलही धर्मानन्द है। उस फल का स्वरूप निरूपक आगम है। उसी उद्देश्य से आगमानुसार आचार्य श्री १०८ महावीरकीर्ति जी गुरुदेव ने सर्व साधारण के हितार्थ सरल हिन्दी भाषा में इसे छन्दोबद्ध किया है। यह सुगम, सरल, गुणरूपी रत्नों का पिटारा है। उद्भट विद्वान अठारह भाषा भाषी होने पर भी अपनी लघुता प्रकट कर रहे हैं। सज्जनों का यही स्वभाव है, वे सदैव ऊपर की ओर दृष्टि रखते हैं अर्थात् विशिष्ट KASAMASATRESENTamuKAksasasalsasugamusASARRERStela धर्मनिन्द श्रावकाचार-३३०

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