Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 331
________________ 25AARALANARAKULAARRRAAA BANKA za दुर्गतियों के असह्य, अपरिमित दुःख सहने होंगे। अतः भव्यात्माओं “व्रतभंगी सर्वभंगी" वचन को ध्यान में रखना। ग्रहीत व्रतों को प्राणपण से पालन करना ही चाहिए ॥ १८॥ • धर्मानन्द श्रावकाचार का फल-- जो इस धर्मानन्द को, पढ़े सुने चित लाय । श्रेष्ठ धर्म का मर्म वह, जाने सब सुखदाय ॥ १९ ॥ प्रथम से दशमाध्याय तक, व्रत गहे क्रम से जोय। वह सुरगति के सुखभोग कर शिव सुख पावे सोय ॥२०॥ मिथ्या यह तज जब गहे, धर्मानन्द महान। तब ही नर भव सफल होय, तथा स्व पर करे कल्याण ।। २१॥ अर्थ - जो भव्य नर-नारा, आबालवृछ इस ग्रन्थ को रूचि से सुनेगा तथा पढ़ेगा, पढ़ायेगा वह धर्म के मर्म अर्थात् सत्य और तथ्य को ज्ञात कर तत्त्व परिज्ञानजन्य आनन्द के परम सुखानन्द को प्राप्त कर सकेगा ॥१९॥ तथा -प्रस्तुत ग्रन्थ दस अध्यायों में निबद्ध है। जो मानव प्रथम से अध्ययन १८. प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं गुरु साक्षीश्रितं व्रतम् । प्राणान्तास्तदक्षणे दुःखं व्रतभंगे भवे-भवे ॥ अर्थ - देव, गुरु, शास्त्र की साक्षी में धारण किये गये व्रत को प्राण कण्ठगत होने पर भी भंग नहीं करना चाहिए। अर्थात् प्राणघातक उपसर्ग परीषह उपद्रव-स्थिति आने पर भी ग्रहीत व्रत नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि प्राण नष्ट होने पर तो उसी भव में अल्प कष्ट पीड़ा सहनी पड़ती है परन्तु व्रत भंग होने पर भव-भव में अनेकों भवों दुर्गतियोंनरकादि के भीषण दुःख सहन करने पड़ते हैं। अतः प्रत्येक भव्य को दृढ़ता से व्रत पालनकर उत्तम गति पाने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ १८ ॥ SAHASRIRAMSREARRIERRESTERTAmassacresceaeseseaSamasa धर्मानन्द नायकाचार ३२९

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