Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 323
________________ SALACASCUASACAETEREAGAYANAETEREACHEREMAA KAZIMIERTEM • ९. परिग्रह त्याग प्रतिमा सकल परिग्रह त्याग धरि, निर्ममता वैराग्य युत्त । मध्यम श्रावक होय तव, नववीं प्रतिमा युक्त ॥ १० ॥ अर्थ संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मोक्षेच्छु भव्य संवेग-वैराग्य भाव सम्पन्न हो उपर्युक्त प्रतिमाओं के नियमों के पालन के अन्तर्बाह्य परिग्रहों का त्याग करता है। हाँ संयम के साधन उपकरण मात्र रखता है। उनमें शरीर आच्छादन योग्य अल्प मूल्य वाले कुछ वस्त्र और भोजन-पान, स्नानादि योग्य कुछ पात्र रखता है उनमें भी मूर्च्छा रहित रहता है। त्याग की भावना रखता है। सीमित ही वस्तुओं का उपयोग करता है । - घर, मन्दिर या अन्य एकान्त स्थान में ही निवास, शयनादि करता है । रोगादि होने पर औषधि सेवा सुश्रुषा के सम्बन्ध में कुटुम्बियों - पुत्रादि से कह देता है करें तो कराता है अन्यथा कलह - विसंवाद नहीं करता । भोजन भी पारिवारिक जन जो कुछ देते हैं कर लेता है, याचना नहीं करता। सन्तोष धारण करता है । इस प्रकार संसार से उदासीन रहने वाला परिग्रह त्याग नवमीं प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। यह घर में जल तें भिन्न पद्म (कमल) समान अलिप्त रहता है ॥ १० ॥ ... अर्थ- जो श्रावक जीव हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापारादिक हैं मुख्य जिनमें ऐसे आरम्भ से विरक्त होता है, वह आरम्भ त्यागी श्रावक अष्टम प्रतिमाधारी कहलाता है। २. निरूढ़ सप्त निष्ठेगि घातां गत्वात्करोति य, न कारयति कृष्यादीनारंभ विरतस्त्रिधा । अर्थ - जो श्रावक नैष्ठिक जीवों के घात से हेतुभूत कृषि खेती आदि आरम्भ को न स्वयं करता है और न अन्य से करवाता है वह आरम्भत्यागी आठवी प्रतिमा धारी है ॥ ९ ॥ SACSCAUAVARAUSCHLACASASAGASAVAKALALAUTETEAUASACZSL धर्मानन्द श्रावकाचार ३२१

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