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• १०. अनुमति त्याग प्रतिमा स्वरूप
आरम्भ परग्रिह में तथा, लौकिक कार्य मंझार । निज अनुमति भी देय नहीं, दशवीं प्रतिमा धार ॥ ११ ॥
अर्थ - इस लोक व्यवहार सम्बन्धी, आरम्भ-परिग्रह के कार्यों में विवाह, गृह निर्माण, व्यापार, लेन-देनादि कार्यों में अनुमति नहीं देता। अपने पारिवारिक जनों के पूछने पर भी सलाह नहीं देता, बच्चन से कहता नहीं, किये जाने पर अनुमोदना भी नहीं करता। रागादि रहित सम बुद्धि रहता है। एकान्त मन्दिर, मठ आदि में रहता है। घरेलू जन अथवा अन्य श्रावक निमंत्रण से बुलाते हैं तो सन्तोष से भोजन कर आता है। खट्टा-मीठा, चरपरा, सरस - नीरस का विकल्प नहीं करता | अच्छे-बुरे, सुन्दर-असुन्दर के विकल्प राग-द्वेष नहीं करता । समचित्त रहकर धर्मध्यान में तत्पर, सावधान, संलग्न रहता है, इसे अनुमति त्याग श्रेणी धारी कहते हैं ॥ ११ ॥
१०. बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्व स्तः ।
स्वस्थः सन्तोषपरः परिचित्त परिग्रहाद्विरतः ।। १४५ ।। र. क. श्रा । अर्थ - जो विवेकी श्रावक दश प्रकार के बाह्यपरिग्रहों से ममत्व त्याग कर संतुष्ट हुआ अपने स्वरूप में स्वस्थ-रत रहता है, वह सब ओर से चित्त में बसे सम्पूर्ण परिग्रहो से विरक्त होता है। इसे परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं ॥ १० ॥
११. १. अनुमतिरारंभे वा परिग्रहेएहिकेषु कर्मसु वा ।
नास्ति खलुयस्य समधी -रनुमति विरतः स मन्तव्यः ॥ १४६ ॥
र. क. श्रा ।
२. भव निष्ठा परः सोऽनुमति व्युपरतः सदा । यो नानुमोदिते ग्रन्थमारम्भ कर्म चैहिकम् ॥
अर्थ - १. जिस श्रावक को आरम्भ में तथा परिग्रह में और इस लोकसम्बन्धी कार्यों में अनुमति, अपनी राय सलाह व अनुज्ञा नहीं देता है, वह अनुमतित्याग
प्रतिमाधारी है।...
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धर्मानन्द श्रावकाचार ३२२