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यहाँ निरतिचार, विशेष रूप से मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना
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पूर्वक देश एकदेश पालन करना व्रत प्रतिमा कहलाती है। इसका धारी व्रती श्रावक कहलाता है । बारह व्रतों का वर्णन पूर्व में आ चुका है, अतः यहाँ नहीं लिखा ॥ ३ ॥
• ३. सामायिक प्रतिमा का लक्षण
चारों दिशा आवर्तत्रय, चउ नति, परिग्रह टाल ।
थिर आसन शुभयोग त्रय, जप प्रतिमा तिहुँकाल ॥ ४ ॥
अर्थ - प्रातः, मध्याह्न व सांयकाल २-२ घड़ी - अन्तमुहूर्त पर्यन्त सर्व सावद्य क्रिया, परिग्रहादि त्याग कर शुद्ध मन, वचन, काय से, चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त (दोनों हाथ मुकुलीकृत दायें से बायें तीन बार घुमाना ) करना तथा एक-एक शिरोनति - नमस्कार करना । पुनः स्थिर आसन लगाकर आत्म चिन्तन करना अथवा पंच परमेष्ठी के स्वरूप का विचार करते हुए महामंत्र णमोकार का जाप करना चाहिए। यथाकाल अन्य भी आगमोक्त, गुरु प्रदत्त किसी भी मंत्र का जप व ध्यान करें । यह सामायिक प्रतिमा कहलाती है । इसमें सामायिकी विशेष रूप आत्म परिणाम शुद्धि को वृद्धिंगत करने का प्रयास करता है || २५१ || सामायिक के प्रारम्भ में जो क्रिया करे उसे ही विसर्जन समय में भी करना चाहिए । अर्थात् प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त व एक-एक शिरोनति करें ॥ ४ ॥
३. निरतिक्रमणमणुव्रत, पंचकमपि शीलसप्तकं चापि ।
धारयते निःशल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिकः ।। १३८ ।। र. क. श्रा ।
अर्थ- ये श्रावक पाँचों अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों, इन बारह व्रतों का निरतिचार, निर्दोष पालन करता है वह व्रतियों में श्रेष्ठ व्रती कहलाता है। निरतिचार का अभिप्राय, माया, मिथ्या और निदान ये तीन शल्य हैं। इनसे रहित होकर त्याग कर व्रतों का पालन करना चाहिए। वही उत्तम व्रती श्रावक है ॥ ३ ॥
CACAVÁLAS
GEMSANGANA
MUZEANZSASZETKAN धर्भाद्ध श्रावकाचार ३१४