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SASACHNANCE
ZEREALAUTETE
अथ दशम अध्याय
34NASANA
प्रतिमा का लक्षण -
पूर्वगुणों के साथ जह, बढ़त स्वगुण नित थान । सूचक आतम शुद्धि की, ग्यारह प्रतिमा जान ॥ १ ॥
अर्थ - श्रावक जीवन विकास क्रम की ग्यारह श्रेणियाँ हैं । इन्हें आगम भाषा में प्रतिमा कहते हैं। क्रमशः पूर्व-पूर्व प्रतिमा के गुण-धर्म नियमों के साथ-साथ आगे की प्रतिमाओं के नियमों का पालन करते हुए श्रावक अपनी आत्मशुद्धि करता हुआ धारण कर मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होता है। प्रारम्भिक आठ मूलगुण, षट्कर्मों का पालन करता हुआ प्रथम दर्शन प्रतिमा धारी बनता है। इसी प्रकार अग्रगामी बनता जाता है ॥ १ ॥
• १. दर्शन प्रतिमा का लक्षण
मूलगुणों युत समकिती, जग-तन-भोग विरक्त ।
दर्शन प्रतिमा होत तिस, जो परमेष्ठी भक्त ॥ २ ॥
अर्थ- सप्त तत्त्व और सच्चे देव, शास्त्र, गुरू का अकाट्य श्रद्धान करना, अष्ट मूलगुणों को धारण करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। निश्चय नय से स्व आत्म स्वरूप में रूचि व श्रद्धा होना सम्यक्त्व है। इस सम्यक्त्व का धारी
१. श्रावक पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु ।
स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रम विवृद्धाः ॥ १३६ ॥ र. क. श्री.
अर्थ - वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु के द्वारा श्रावक की प्रतिमाएँ या पद ग्यारह कहे गये हैं । इन प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं का गुण, धर्म, व्रत सम्मिलित रहते हैं। इस प्रकार क्रम से बढ़ते गुण रहते हैं। श्रावक के चारित्र संयम का अन्तिम विकास है। इनके अनन्तर महाव्रत रूप निर्ग्रन्थ दिगम्बर पद धारण करता है ॥ १ ॥
SASALASAGNEZE
KARABACALABASASABASABASABA
धर्मानन्द श्रापकाचार ३१२
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