Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 312
________________ SATIRALARASANIZUAKARANATACARABARABALACATASARA करना तथा पूर्व में मेरे मित्रों मे मुझे किस जिर. प्रकार सुख-दुःख में हा दी थी एवं मन में अपने पुरातन एवं नवीन मित्रों की याद कर रहा है कि ये सब अब मुझसे छूट जायेगे इस प्रकार का स्मरण करना तीसरा अतिचार है। ४. मरते हुए भी पहले भोगों की याद करना का स्त्री, पुत्र, वैभव आदि पहले इसी पर्याय में अच्छे-अच्छे भोग भोगे हैं अब नहीं मालूम कैसी अवस्था प्राप्त होगी इस प्रकार पूर्व सुखों का पुनः-पुनः स्मरण करना चौथा अतिचार है। ५. सल्लेखना धारण करके उसका फल पर भव में स्वर्ग या भोगभूमि आदि के सुखों की चाहना करना पर सुख चहन नामका पाँचवां अतिचार है। इस प्रकार पाँचअणुव्रतों के पाँच-पाँच अतिचार, तीन गुणव्रतों के पाँचपाँच अतिचार, चार शिक्षाव्रतों के पाँच-पाँच और सल्लेखना के पाँच अतिचार तथा सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार कुल ७० होते हैं इनको बचाकर व्रतों की रक्षा करना श्रावक का प्रथम कर्तव्य है ।। १६ ॥ • नवम अध्याय का सारांश जो श्रावक गुण व्रतनि को पाले सदा अदोष। महावीर पुरुषार्थ बल लहे स्वर्ग शिवकोष ॥ १७॥ अर्थ - जो श्रावक बारह व्रतों को निरन्तर दोष रहित निरतिचार पालता १६. जीवितमरणाशंसे, सुहृदनुरागः सुखानुबन्धश्च । ___ सनिदानः पञ्चैते भवन्ति सल्लेखना काले ॥ १९५ ॥ (पु. सि.) अर्थ - सल्लेखना धारण कर जीने की इच्छा करना, २. शीघ्र मरण चाहना, ३. पूर्व के मित्रों का स्मरण करना, ४. पूर्व भोगे भोगों का स्मरण करना और ५. आगामी भव में भोगों की प्राप्ति के लिए निदान करना ये ५. सल्लेखना के अतिचार कहे है इनका त्याग करना चाहिए ।। १६ ।। SasurasRRESERaasacrezRIRASASReasamagraneZER धर्मानन्द श्राधकाचार -३१० .

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